The book “Utility of Soul for development of Vibrant Society (An Innovative Yogic Approach)” is already published by www.smashword.com. The Hindi translation of the same completed by Engineer Naipal Singh is available for free download.  Seekers may please utilize the same for their worldly and spiritual development.

यूटिलिटी ऑफ़ सॉऊल फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ वाइब्रेंट सोसाइटी

      ( एन इन्नोवेटिव योगिक अप्रोच )

 

इंजी०  नैपाल सिंह

(अनुवादक)

 

प्रोफ़े० ए० एन० पांडेय

   (लेखक)

 

सारांश

      हम में से अधिकांश को यह  गलत जानकारी है कि आत्मा का सांसारिक से आध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। यह सच है लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि जीवंत समाज को प्राप्त करने के लिए आत्मा बहुत उपयोगी है और अगर सही ढंग से समझा जाए तो विश्व शांति को बनाए रखने के लिए भी।आत्मा हिंदू, ईसाई और इस्लाम सहित सभी धर्मों द्वारा मान्यता प्राप्त है। हिंदु धर्म में इसे  जीवात्मा  द्वारा समझा जाता है; ईसाई धर्म में इसे सॉऊल (आत्मा) के रूप में पहचाना जाता  है और इस्लाम धर्म में इसेरूहके रूप में  पहचाना जाता है। पुस्तक संक्षेप में बताती है कि आत्मा कैसे जीवंत दुनिया तथा गतिशील और परेशानी रहित समाज को प्राप्त करने में सहायक है।

         पुस्तक में (i) परिचय (ii) आत्मा का जीवंत और शांतिपूर्ण समाज में उपयोग (iii) आत्मा और बुद्धि (iv) आत्मा और अहंकार (v) आत्म बोध  के माध्यम से आत्मा को समझना और (vi)  आत्मा के माध्यम से सफलता, नामक छह अध्याय  हैं। संबंधित विषय के सार को समझाने के लिए ३५ चित्रों को प्रयोग में लाया गया है। रीढ़ की हड्डी में () गुप्त शक्ति (आत्मा) जैसे विषय की विशेषताएं मौजूद हैं। () समाज में विकसित आत्मा की आवश्यकता क्यों है ? () यथार्थवादी जीवन में हमारा असली मित्र क्यों है? () दिनप्रतिदिन जीवन में एहसास की हुई आत्मा (दिव्यता) की आवश्यकता कैसे होती है ? () ध्यान के माध्यम से आत्मा की स्वतंत्रता () जीवन की उच्चतम बाधा को चलाने के लिए शक्तिशाली दिमाग की आवश्यकता () कैसे अधिक उलझन से कम उलझन में आत्मा को उठाया जा सकता है ? () ध्यान के लिए आदर्श अवस्था। () मानव निर्माण के लिए तीन तत्व () सांस, मन और मानसिक शरीर की संजोकता () परमाणु संरचना और जिवात्मा के लिए बुनियादी भवन समूह ()आत्मा का तीन शरीरो से संबंध ( ) शूक्ष्म शरीर में जीवात्मा () पंच कोश और आत्मा के कार्य () आत्म समर्पण (संतुलित अहंकार और क्यू) दूसरों के साथ साझा करने की स्वतंत्रता को बढ़ाता है () सृजन वास्तविकता को साकार करने से रोकता है लेकिन यह पुस्तक पाठकों की बेहतर समझ के लिए पूर्णता को खोजने में भी मदद करती है।

 

  विषयसूची                                                                                                            पृष्ट   

1.   परिचय                              ……………………….                                                  5

2.   जीवंत और शांतिपूर्ण समाज  ………………………                                                   8

    में आत्मा की उपयोगिता

 3.  आत्मा और दिमाग             ………………………                                                    18

 4. आत्मा अह्म                      ……………………….                                                   29

5.  आत्मबोध से आत्मा

     को जानना                           ……………………….                                                  44

 6. आत्मा के माध्यम से सफलता

    लेखक का संक्षिप्त परिचय

   अनुवादक का संक्षिप्त परिचय   …………………….                                                      57

 

यूटिलिटी ऑफ़ सॉऊल फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ वाइब्रेंट सोसाइटी

              ( एन इन्नोवेटिव योगिक अप्रोच )

 

          . परिचय

       यह देखा गया है कि परमात्मा, आत्मा और जिवात्मा जैसे विषय बहुत ही प्रमुख हैं और जीवंत समाज और गतिशील दुनिया को प्राप्त करने के लिए इन्हे समझा जाना है। यह शिक्षित मनुष्यो की सहायता करेगा और वे कुछ धर्म या पंथ में अंधविश्वास रखने के बिना ज्ञान के प्रकाश में काम करने की स्थिति में होंगे। विश्लेषण से पता चलता है किजीवंत समाज और गतिशील दुनिया के विचलन को प्राप्त करने के लिए आत्मा की उपयोगिताप्रासंगिक है और इसका प्रयास किया गया है।

     यह पुष्तक इस प्रकार के प्रश्नो पर प्रकाश डालती है – () आत्मा का क्या महत्व है ? () क्या २१वी शताब्दी में आत्मा के विषय में जानने  से हानि है होती है ? () क्या किसी राष्ट्र की स्वतंत्रता उसके नागरिको द्वारा आत्मा के विषय में जानने के कारण दांव पर लगी होती है ? () बुद्धि की सहायता से आत्मा की अवधारणा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? () मन और प्राण किस तरह जिवात्मा, आत्मा और परमात्मा के क्रमिक बदलाव को दर्शाते हैं? () क्या प्राण और मन जैसे दो तत्व प्रगतिशील और शांतिपूर्ण समाज के विकास में भिन्न स्तरों पर भिन्न परिणाम देते हैं ? () क्या चेतना का विकास प्रभावी रूप से आत्मा के साथ संक्षेप में किया जा सकता है। इस संबंध में, इस क्षेत्र में काम कर रहे आदि शंकराचार्य, दार्शनिक और वैज्ञानिक जैसे प्रसिद्ध  लेखक की दृष्टि की सहायता से आत्मा की जटिलता को विभिन्न कोणों में देखा जाना चाहिए।

     इन प्रश्नो का उत्तर () भागवत  गीता () आदि शंकराचार्य द्वारा रचिततत्त्व बोधऔर () स्वामी विवेकानंद द्वारा रचितकम्पलीट वर्क ऑफ़ स्वामी विवेकानंदनामक पुष्तकों की प्रष्ट भूमि में देने का प्रयास किया गया है। भागवत गीता में जीवात्मा की स्वतंत्रता और उपयोगिता की खोज पर दोनों तत्त्व के संग क्रमिक विकास पर बल दिया गया है जब कि तत्त्व बोध में आत्मा के कार्यात्मक पहलु पर विभिन्न दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है। इनके अतिरिक्त लेखक द्वारा अपनी वेबसाइट योगिककॉन्सेप्ट्स डॉट इन पर प्रकाशित शोध पत्रों () प्रिंसिपल एंड प्रोसेस ऑफ़ सोउल एंड ईगो तथा () जर्नी ऑफ़ सोउल फ्रॉम ह्यूमन एग्जिस्टेंस टु दी अब्सोल्युट (परमात्मा ) में उल्लेखित सार का भी इस पुष्तक में उल्लेख है। यह भी रोचक तथ्य है कि पश्चिमी जगत द्वारा  भी आत्मा के विश्लेषण  और उसके उपयोग पर  सराहनीय कार्य किया गया है और उसे स्वीकारा भी गया है। प्रतिदिन कार्यो में प्रयोग होने वाली आत्मा की महत्ता को विभिन्न अध्यायों में वर्णन किया गया है। विषय की जटिलता को समझने के लिए योग के योगदान को भी स्पष्ट किया गया है।

 

. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रतिबंधों से निपटने के लिए योग की   आवश्यकता

   २१वी शताब्दी में जब कि हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम विज्ञान और तकनीकी में हुए विकास का लाभ उठाएं, तब ईश्वर, आत्मा, जीवात्मा पर चर्चा करना अप्रासंगिक  प्रतीत होता है। २० वी शताब्दी विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में उन्नति का काल था। इस अवधि में विकसित हुई क्वांटम थिओरी  ने विज्ञान के पारम्पिक सिद्धांत को मजबूती प्रदान की है और मौलिक विज्ञान के क्षेत्र में विकास के नए आयामों के साथसाथ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसकी उपयोगिता को सिद्ध किया है। विज्ञान के लाभ २१ वी शताब्दी में परिपक़्व हो रहे हैं। यद्यपि इस अवधि में विज्ञान और तकनीकी के दुष्परिणामो से क्षति भी हुई है।

        दुष्परिणामो में से कुछ हैं – () परमाणु तकनीक के विकास से उत्पन्न रेडियोधर्मिता समस्या () हरित क्रांति से उत्पन्न कैंसर का प्रभाव () उच्च शिक्षा से उत्पन्न बेरोजगारी एवं अशांति और () अर्थव्यवस्था में असमानता के कारण विश्वव्यापी द्वंदता आदि। विज्ञान और तकनीकी के दुष्परिणामों के आवश्यक समाधान हेतु ही आध्यात्मिकता और योग के क्षेत्र की खोज हुई, जो कि सनातन धर्म में प्राचीनतम विज्ञान है जिसका वेद में भी उल्लेख है। विज्ञान और तकनीकी के दुष्परिणामो पर विजय पाने के लिए २१वी शताब्दी आध्यात्म और योग के लाभकारी पहलू की खोज में अग्रसर है। इसके अतिरिक्त भगवत गीता जैसे धर्म ग्रन्थ आत्मा के विकास और इसकी उपयोगिता की स्पष्टता प्रदान करता है लेकिन आम आदमी इस ज्ञान से अछूता रहता है।

. भगवत गीता में वर्णित आत्मा को समझा नही गया है

    भगवत गीता जैसे धर्मग्रंथ ५००० वर्ष पुराने होने के बावजूद आत्मा की महत्ता और उपयोगिता को आम आदमी के स्तर तक नही लाया जा सका है। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला कारण यह हो सकता है कि आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में आम आदमी का  दिमाग अविकसित रहा हो। आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा आम आदमी में अनुभूति क्षमता उत्पन्न कर सकती है जो उनमे आत्मा जैसे जटिल विषय को समझने, उसका विश्लेषण करने में सहायक है। दूसरा कारण हो सकता हैपुजारी वाद‘’ और जातियों में वरिष्ठता भावना। ये दोनों कमियां आत्मा जैसे विषय को जो दिन प्रतिदिन की दिनचर्या में बहुत उपयोगी है, सविस्तार समझाने में बाधक रहे हैं। इसके विषय में स्वामी विवेकानंद ने १९वी शताब्दी में दृढ़ता पूर्वक अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

. आत्मा पर स्वामी विवेकानंद का अन्वेषण  

     स्वामी विवेकानंद का प्रशिद्ध उद्धरण वर्णन करता हैप्रत्येक आत्मा सशक्त रूप से दिव्य है बाहरी और आंतरिक प्रकृति को नियंत्रित करके इस दिव्यता को जोड़ना ही लक्ष्य है। इसे काम या पूजा या मानसिक नियंत्रण या ज्ञान विद्या में से किसी एक या एक से अधिक, या इन सब विधियों को  अपनाकर करेंऔर स्वतंत्र हो जाएं। यही संपूर्ण धर्म है। सिद्धांत या धर्मसिद्धांत, या अनुष्ठान, या किताबें, या मंदिर या रूप जैसे विकल्प मौजूद अवश्य हैं लेकिन इनका स्थान बाद में आता है।

 

       स्वामीजी ने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्षीकरण (मनिफेस्टेशन ) शब्द का प्रयोग किया है। प्रत्यक्षीकरण के पर्यायवादी  शब्द लक्षण, अभिव्यक्ति, उपस्थिति, भौतिककरण और प्रदर्शन हैं। इस अर्थ से आत्मा शब्द की सम्पूर्ण व्याख्या हो जाती है और इसका प्रयोग उच्चतम लक्ष्यईश्वरत्वको प्राप्त करने तथा  दिन प्रतिदिन के कार्यकलाप में किया जा सकता है। यद्यपि स्वामी जी ने आत्मा की उपयोगिता का किसी भी विधि  ( यथा भौतिक विकास या आध्यात्मक  विकास ) में अन्वेषण करने के लिए १९वी शताब्दी में ही नारा  दिया था लेकिन इस दिशा में कोई विशेष कार्य नही किया जा सका। ऐसा इसलिए है क्योंकि आत्मा शब्द की व्याख्या आम व्यक्ति के समझने के दृष्टिकोण से नही की सकी है। अबआत्माविषय की उपयोगिता को सरल रूप में खोजने का एक प्रयास किया गया है जैसा कि स्वामी जी पूर्व में ही घोषित कर चुके हैं।

 

        पुस्तक में (i) परिचय (ii) आत्मा का जीवंत और शांतिपूर्ण समाज में उपयोग (iii) आत्मा और बुद्धि (iv) आत्मा और अहंकार (v) आत्म बोध  के माध्यम से आत्मा को समझना और (vi) आत्मा के माध्यम से सफलता, नामक छह अध्याय  हैं। संबंधित विषय के सार को समझाने के लिए ३५ चित्रों को प्रयोग में लाया गया है। रीढ़ की हड्डी में () गुप्त शक्ति (आत्मा) जैसे विषय की विशेषताएं मौजूद हैं। () समाज में विकसित आत्मा की आवश्यकता क्यों है ? () यथार्थवादी जीवन में हमारा असली मित्र क्यों है? () दिनप्रतिदिन जीवन में एहसास की हुई आत्मा (दिव्यता) की आवश्यकता कैसे होती है? () ध्यान के माध्यम से आत्मा की स्वतंत्रता () जीवन की उच्चतम बाधा को चलाने के लिए शक्तिशाली दिमाग की आवश्यकता () कैसे अधिक उलझन से कम उलझन में आत्मा को उठाया जा सकता है ? () ध्यान के लिए आदर्श अवस्था। ( ) मानव निर्माण के लिए तीन तत्व () सांस, मन और मानसिक शरीर की संजोकता () परमाणु संरचना और जिवात्मा के लिए बुनियादी भवन समूह () आत्मा का तीन शरीरो से संबंध ( ) शूक्ष्म शरीर में जीवात्मा () पंच कोश और आत्मा के कार्य () आत्म समर्पण (संतुलित अहंकार और क्यू) दूसरों के साथ साझा करने की स्वतंत्रता को बढ़ाता है () सृजन वास्तविकता को साकार करने से रोकता है लेकिन यह पुस्तक पाठकों की बेहतर समझ के लिए पूर्णता को खोजने में भी मदद करती है। पाठको को आत्मा जैसे जटिल विषय की जानकारी देने के लिए इस पुस्तक में प्रस्तुत कुछ रोचक पहलुओं का सहारा लिया गया है।

 

() जीवंत और शांतिपूर्ण समाज में आत्मा की उपयोगिता

 

          हम में से अधिकांश को यह  गलत जानकारी है कि आत्मा का  सांसारिक से आध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। यह सच है लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि जीवंत समाज को प्राप्त करने के लिए आत्मा बहुत उपयोगी है और अगर सही ढंग से समझा जाए तो तो विश्व शांति को बनाए रखने के लिए भी। आत्मा हिंदू, ईसाई और इस्लाम सहित  सभी धर्मों द्वारा मान्यता प्राप्त है। हिंदु धर्म में  इसे  जीवात्मा  द्वारा समझा जाता है; ईसाई धर्म में इसे साऊल (आत्मा) के रूप में पहचाना जाता  है और इस्लाम धर्म में इसेरूहके रूप में  पहचाना जाता है। लेख संक्षेप में बताता है कि आत्मा  कैसे जीवंत दुनिया तथा गतिशील और परेशानी रहित समाज को प्राप्त करने में सहायक है।

 

  . आम आदमी की भाषा मेंआत्माकी अवधारणा

      आत्मा एक पदार्थ है अथवा नहीं ? इसको वेद और भागवद गीता में विस्तार से स्पष्ट किया गया है। प्रश्न उठता है कि क्या आत्मा एक पदार्थ है,अथवा एक सूक्ष्म कण है,अथवा परिवर्तनीय और घबराहट भरा दिमाग है ? धर्म ग्रन्थ बताते हैं कि जब भी दिमाग (माइंड) शुद्ध होता है और दिमागी स्टफ अथवा चित जो किसी भी वृति अथवा चंचलता से रहित होता है, के फैलाव के बाद  अपने स्तित्व को खोने लगता है, तब वह आत्मा में परिवर्तित हो जाता है। प्राय हमारे दिमाग बदलते रहते हैं और चित की सीमा तक परिवर्तित होता रहता है। दिमाग के अंदर पदार्थ कहाँ हुआ ? उसको हम नही पा सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी हमयहहैं और कुछ देर बादवहहो जाएंगे। यदि हम परिवर्तन रोक सकते हों तो हम विश्वास कर सकते है कि आत्मा पलभर के लिए पदार्थ अवस्था में रही होगी।  

                        

यदि हम बुद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मो में विद्यमान अवधारणा का विश्लेषण करते हैं तो और अधिक स्पष्टता दृष्टिगोचर होगी। उदाहरण के तोर पर बुद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म इस आदर्श तक पहुँचने के लिए स्थायीत्व (अनंत और शाश्वतत्व ) में विश्वास करने के साथ इसे  प्राप्त करने के लिए किसी किसी रूप में  संघर्ष भी करते हैं। बुद्ध धर्म तत्व को अस्वीकार करता है और ऐसा करने से वह पूर्ण संतुष्ट है। यह धर्म कहता है कि आत्मा, अमरता  आदि  ईश्वर (गॉड) के विषय में ऐसे  व्यवसाय के प्रश्नो से हमें उकसाएंगे नही। लेकिन संसार के अन्य धर्म इस तत्व से अपने आपको बांधे हुए हैं। सब परिवर्तनों के बावजूद ये धर्म विश्वास करते हैं कि आत्मा मनुष्य में तत्व  है। इसका तात्पर्य  यह हुआ कि ईश्वर तत्व है जो कि ब्रह्माण्ड में है। वे सब धर्म आत्मा की अमरता में विश्वास करते हैं।

        चित्रपरिवर्तनीय एक तत्व (आत्मा) नही हो सकतासंक्षेप में वर्णन करता है क़ि प्रश्न है : क्या हम तत्व (आत्मा) अथवा सूक्ष्म कण जो परवर्तित हो रहा है, फूल रहा है अथवा निर्बल दिमाग हैं ? हमारा दिमाग लगातार बहिर्मुखी से अंतर्मुखी स्थिति में परिवर्तित हो रहा है। तत्व (आत्मा) अंदर कहां पर है ? इसको हम नही खोज सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी मैं यह हूँ और अभी वह भी हूँ। प्रत्येक मनुष्य तत्व में विश्वास करेगा यदि क्षण भर के लिए इस परिवर्तन को रोक दिया जाए। परिवर्तनशील अधो दिमाग है जब कि अपरिवर्तनीय तत्व उच्च दिमाग है; जो सूक्ष्म ऊर्जा (प्राण) और सूक्ष्म अंतराल (निर्बल दिमाग) को एकजुट करने के बाद विकसित होता है। वही (बिंदु विसर्गा) आत्मा का स्थान है।

       एक आदमी में और ब्रह्मांड में तत्व को समझना उसे विकसित करने और पदार्थ, प्रकृति तथा  ब्रह्मांड के निर्माण के संबंध में महसूस करने में मदद करता है। वह तत्व मनुष्य में या तो आत्मा है या ब्रह्माण्ड में परमात्मा अथवा ईश्वर (गॉड) बुद्धिज्म इस तत्व को स्वीकार नहीं करता और इस अस्वीकार्यता से वह पूर्णत संतुष्ट है।  यह धर्म कहता है कि आत्मा, अमरता  आदि  ईश्वर (गॉड) के विषय में ऐसे  व्यावसायिक प्रश्नो से हमें उकसाएंगे नही। लेकिन संसार के अन्य धर्म इस तत्व से अपने आपको बांधे हुए हैं। सब परिवर्तनों के बावजूद ये धर्म विश्वास करते हैं कि आत्मा मनुष्य में तत्व  है।  इसी प्रकार  ईश्वर (गॉड ) तत्व है जो कि ब्रह्माण्ड में है। वे सभी धर्म आत्मा की अनश्वरता में विश्वास करते हैं। ईसाई धर्म कहता है कि एक तत्व है जो सदैव अमर रहेगा।

      ये सब कल्पना हैं। बुद्ध धर्म और ईसाई धर्म के मध्य इस विवाद को कौन सुलझाएगा ? ईसाई धर्म कहता है कि एक तत्व है जो सदैव जीवित रहता है। इस धर्म को मानने वाला कहता है किऐसा उनकी बाइबिल कहती है।बौद्ध कहता है कि मैं तुम्हारी पुस्तक में विश्वास नही करता। बुद्धिज्म और अन्य धर्म पंथो के  मध्य उत्पन्न इस विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक है कि आत्मा के विषय में ज्ञान हो।

 

. आत्मा को इसकी उपयोगिता के लिए कैसे समझा जाए ?

     प्रत्येक मनुष्य की आत्मा एक गुप्त शक्ति रखती है जिसको खोजे जाने की आवश्यकता है। लेकिन उस खोज के रास्ते में कुछ मित्थक बाधा बनकर खड़े हुए है और उनमे से एक हैमृत्यु का भय ”. विशेषकर इस जन्म मृत्यु भय को दूर करने के लिए समाज को धार्मिक कार्य कलापो को करते रहने की आवश्यकता है। साथ ही सुखी जीवन जीने के लिए अन्य जरूरी गुणो को भी प्राप्त करने की आवश्यकता है। इस धर्म का छोटा सा भाग ही किसी  व्यक्ति को जन्म मरण के बड़े भय से बचाता है। वास्तव में विभिन्न धर्म सुख दुःख की अवधारणा को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन इन धर्मो द्वारा प्रदत्त सभी नियम आचरण के बावजूद सफलता नही मिल रही है।

    द्वैतवादि, योग्यमोनिस्ट, मोनिस्ट, शैवा, वैष्णव, शक्ता, यहां तक कि बोध और जैन भी  तथा अन्य यहां मुख्य पंथ मौजूद हैं। जिस किसी भी पंथ का भारत में उत्थान हुआ उन सभी का इस विषय में  एक मत है कि जीवात्मा (वैयक्तिक आत्मा) में असीम गुप्त शक्ति है। चित्र स्वयं में यह दर्शाता है किमनुष्य में जीवात्मा कैसे प्रकट हुई और कहाँ यह अंत: शक्ति विराजमान है ? ”

जीवात्मा आंतरिक यंत्र (अंतकरण ), ऊर्जा (प्राण )  के संग बिंदु के रूप में आती है। ये तीन तत्व अभिव्यक्ति और विकास के लिए भी उत्तरदायी हैं। इनमें से जीवात्मा के पास ही असीम गुप्त शक्ति है और यह ह्रदय रीढ़ की हड्डी में निवास करती है। योगिक अभ्यास के दौरान रीढ़ की हड्डी के सहारे नस प्रवाह की क्रिया मानव की विकास प्रक्रिया को निर्दशित करती  है।  

         आत्मा को उसकी उपयोगिता के विषय में कैसे महसूस किया जा सकता है, जैसे प्रश्न का परीक्षण जीवात्मा जो बंधन के अधीन है, की सहायता से से किया जा सकता है। जब जीवात्मा (जो हृदय के छेड़ में निवास करती है) को प्रकृति के बंधन से मुक्त किया जाता है तब वह असीमित ऊर्जा प्राप्त करती  है जो अन्यथा स्थिति में बंधन के रूप में रक्खी रहती है। जीवात्मा में से छिपी  सम्भावना का अन्वेषण करना बाहरी न्यूट्रोंस  की सहायता से प्रोटोन और न्यूट्रॉन के मध्य असीमित ऊर्जा के  बंधन को तोड़ने के समान है। मानव जाति में उत्थानित मन (विषेशकर अनहाता चक्र के ऊपर ) बाहरी न्यूट्रॉन के समान कार्य करता है। यह उत्थानित मन उपयोगिता के लिए सकारात्मक तरीके से मानव क्षमता पैदा करके जीवात्मा (शून्य आवेश का न्यूट्रॉन) और हड्डी के छिद्र (धनात्मक आवेश का प्रोटोन ) के मध्य के असीमित क्षमता के बंधन पर आक्रमण करता है।  जब जीवात्मा इस बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह आत्मा बन कर  बिंदुविसागरा (तीसरा वेंट्रिकल  ) जो सिर के पिछले भाग का ऊपरी हिस्सा होता है, में निवास करता है। इस प्रकार जीवात्मा की छिपी क्षमता , फलस्वरूप आत्मा ,मानव जाति की उपयोगिता के लिए उपलब्ध रहता है, विशेषकर दिव्यता के लिए आत्मा की उपयोगिता को सकारात्मक अहंकार, जिसके दो भाग () हावी होने की तीव्र ईच्छा और () इस इच्छा को सहनशीलता, स्वीकार्यता  को सकारात्मक दिशा में रखते हुए दूसरो के साथ साझा करना,को प्राप्त करने में स्थापित करने में किया जा सकता है। सकारात्मक अहंकार जीवंत समाज और गतिशील दुनिया को प्राप्त करने के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।  

 

.  जीवंत समाज और गतिशील दुनिया में वृद्धि के लिए आत्मा की आवश्यकता

        आम आदमी यह समझता है कि दिन प्रतिदिन की दिनचर्या, रहन सहन  में आत्मा को समझने का अधिकार केवल आध्यात्मिक गुरुओं को है आम आदमी को नही। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम में से अधिकतर दिन प्रतिदिन की दिनचर्यायों में विकास के समय के साथ आत्मा के असली रूप को उसके गुणों, अस्तित्व और उपयोगिता के परिपेक्ष में नही समझ पाए हैं। वेद सहित सभी धर्मग्रंथ आत्मा, इसके कार्य , इसकी उपयोगिता संबंधी सभी सूचनाओं को विस्तार पूर्वक उपलब्ध कराते हैं। दुर्भाग्यवश आम आदमी ने इस ओर ध्यान नही दिया है जिसके कारण आत्मा को समझना एक कठिन  कार्य हो गया है। 

        आत्मा को सभी धर्मों में संदर्भित किया जाता है। उदाहरण स्वरूप इस्लाम धर्म में इसे रूह खा जाता है। इसी प्रकार ईसाई धर्म और हिन्दू धर्म में इसे क्रमशः साउल आत्मा कहा जाता। सभी धर्मों में यह महत्वपूर्ण विषय होने के नाते दिन प्रतिदिन के जीवन में और आध्यात्मिक विकास में इसकी उपयोगिता को  गंभीरता पूर्वक जानने का प्रयास किया जाता है। 

       जब तक इस विषय को आम आदमी के ग्रहण करने के लिए सरल नही किया जाता तब तक जीवंत समाज और विश्व शांति के रखरखाव को इस भौतिक संसार में बनाए रक्खा नही जा सकता। उदाहरण के तोर पर इतिहास दर्शाता है कि अधिकतर देश विशेषकर भारत ने स्वतंत्रता तभी प्राप्त हुई जब अरबिंदो, महात्मा गाँधी, अने बेसेंट जैसी आत्माओं ने स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती दी। जब तक ऐसे आध्यात्मिक महापुरुषो ने भाग नही लिया तब तक स्वतंत्रता आंदोलन सफलता के लिए संघर्ष करता रहा।

      इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वतंत्रता आंदोलन जैसे कठिन कार्य को प्राप्त करने के लिए विकसित सॉऊल (किसी भी सीमा तक तक विकसित ) आवश्यक है। इसी प्रकार  सांसारिक शांति में स्थिरता पाने के लिए पुन कुछ विकसित आत्माएं (सॉऊल) यह शांति बनाए रखने के लिए आवश्यक है।  जीवंत समाज के निर्माण के लिए गतिशील और प्रतिबद्ध लोगों को बनाने के लिए विकसित आत्मा आवश्यक है। विश्लेषण स्पष्ट तोर पर दर्शाता है कि संक्षेप में एक खुश और धनी समाज, सामान्यत एक शांतिमय संसार के  निर्माण के लिए आम आदमी को सॉऊल (आत्मा) जैसे विषय को समझना ही होगा। इसके लिए विभिन्न स्तरों पर माइंड  (मन ) का विश्लेषण आवश्यक है।

. भौतिक जीवन में भी उच्च दिमाग (आत्मा) कैसे हमारा मित्र बन जाता है ?

       दिमाग (मन) “आकाश  तत्वका भाग है।  जब वह ज्ञानेन्द्रिय की पकड़ में रहता है तब आत्मा (परमात्मा) के लिए शत्रु का काम करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ माइंड (मन) को शरीर के निचले भाग में रखती है। वही दिमाग (माइंड) जीवात्मा को प्रकृति की पकड़ से छुटकारे के लिए सहायक का काम करता है। उसी समय दिमाग (माइंड ) चित के ज्ञान क्षेत्र में विकसित हो जाता है।

      यद्यपि दिमाग (माइंड) बहुत ही धूर्त, अस्थिर और अविश्वनीय है।  लेकिन यह हमें ऊपर उठाने में बहुत शक्तिशाली और सक्षम है। दिमाग के ऊर्ध्वाधर बल और क्षमता को इसलिए महसूस किया जाता है क्योंकि इसमें उच्चतर आत्मा काम कर रही होती है। उक्त परिदृश्य अन्तःकरण की शुद्धता होने पर प्राप्त होता है। विशुद्ध दिमाग (माइंड) ही उच्च आत्मा है ; अशुद्ध दिमाग ही निम्न आत्मा है। इससे स्पष्ट होता है कि विशुद्ध दिमाग अथवा अन्तःकरण ही जीवात्मा की प्रकृति की पकड़ से मुक्ति दिलाने में सहायता प्रदान करता है। साथ ही अशुद्ध अन्तःकरण जीवात्मा को प्रकृति अथवा माया की पकड़ में  बांधे रखता है।

दिन प्रतिदिन के जीवन में विकसित आत्मा (साऊल ) अथवा जीवात्मा ही हमारा सच्चा मित्र है जब कि अविकसित आत्मा अथवा जीवात्मा भौतिक संसार में भी शत्रु का काम करते हैं। वास्तव में स्वयं (विकसित जीवात्मा और आत्मा ) ही हमारा मित्र है; और इसके अतिरिक्त कोई मित्र नहीं है। उच्च और विकसित जीवात्मा अथवा आत्मा जो हमारा उत्थान कर रही है ही हमारा मित्र हैं। निम्न और अविकसित आत्मा जीवात्मा जो हमें गर्त में ले जाएंगे, हमारे शत्रु हैं। हम में से प्रत्येक को निर्णय करना है कि हमें उत्थान करना है अथवा गर्त में जाना है (इस ओर या उस ओर )

             

       यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि समाज में हम में से प्रत्येक को विकसित दिमाग की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दिन प्रतिदिन के जीवन में विकसित आत्मा (साऊल ) अथवा जीवात्मा ही हमारा सच्चा मित्र है जब कि अविकसित आत्मा अथवा जीवात्मा भौतिक संसार में भी शत्रु का काम करते हैं। वास्तव में स्वयं (विकसित जीवात्मा और आत्मा ) ही हमारा मित्र है; और इसके अतिरिक्त कोई मित्र नहीं है। उच्च और विकसित जीवात्मा अथवा आत्मा जो हमारा उत्थान कर रही है ही हमारा मित्र हैं। निम्न और अविकसित आत्मा जीवात्मा जो हमें गर्त में ले जाएंगे, हमारे शत्रु हैं। हम में से प्रत्येक को निर्णय करना है कि हमें उत्थान करना है अथवा गर्त में जाना है (इस ओर या उस ओर ) जब कोई उत्थान करता है तो उसे आत्मा (सॉऊल) की समीपता का अनुभव होता है।

 

.. आत्मा (सॉऊल) कैसे हमारा सच्चा विश्वनीय मित्र होगा ?

         यदि सॉऊल (जीवात्मा) का विकास उच्च स्तर (प्राय आकस्मिक शरीर और मानसिक सुरंग में ) पर होगा तभी वे विश्वनीय होंगे। इनको प्राणायाम और मैडिटेशन (ध्यान ) से प्राप्त किया जा सकता है। विकसित साऊल और जीवात्मा को प्राप्त करने का दूसरा उपाय है निस्वार्थ और निष्काम भावना से दूसरो की सेवा करना। इसके लिए हमें प्रतिदिन दूसरो की सेवा करनी चाहिए कि अपना समय बर्बाद करना चाहिए। यदि हमें योगिक क्रियाओं और ध्यान के अतिरिक्त कुछ अन्य करना ही है तो केवल दूसरो की सेवा ही करनी चाहिए। सेवा करने के बाद बिना किसी से बातें किये अकेले रहना चाहिए। इस प्रकार का माहौल हमें सेवा भाव के प्रति प्रेरित करेगा और हमारा स्वभाव अपने प्रति अधिक मित्रता पूर्ण होगा। वास्तव ऐसे प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ये मित्र कौन, कैसे हैं और हमें कौन सहायता कर रहा है ? जब हमें विकसित जीवात्मा और साऊल जैसे मित्र मिल जाते हैं तो इन सभी प्रश्नो का उत्तर हमें मिल जाता है।

सांसारिक मित्र दूसरे प्रकार का व्यवहार करते हैं। ऐसे मित्र आज कुछ कहते हैं और कल हमारी ही निंदा करने लगते हैं। इस प्रकार आज का मित्र कल का शत्रु है। यह सब कुछ अच्छा नहीं है। ऐसे सांसारिक मित्रो (अस्थिर और परिवर्तिनीय ) से छुटकारा पाने के लिए हमें अपने वास्तविक मित्रो जो इस भौतिक संसार में जीवात्मा से कम कुछ नही हो सकता का पता लगाना चाहिए। विकसित साऊल अथवा जीवात्मा के अभाव में हमें ऐसे सांसारिक मित्रो पर ही निर्भर रहना पड़ता है और ऐसा होना स्वयं के, समाज के, राष्ट्र के समग्र विकास में रूकावट होता है।

        “ईश्वर हमारा सच्चा मित्र कैसे बन सकता हैनामक चित्र संक्षेप में दर्शाता है कि विकसित सॉऊल अथवा जीवात्मा की अवस्था के आधार पर हम अपने स्वयं के मित्र भी हैं और शत्रु भी। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अकेले ही आए थे; और अकेले ही जाएंगे। यह इंगित करता है कि हमें अपना मित्र चुनते समय अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। इसलिए जीवात्मा अथवा सॉऊल  को उच्तर अवस्था तक उत्थान करके हमें अपने अंदर के वास्तविक और विश्वसनीय मित्र का विकास करना चाहिए।

            इस प्रकार का कथन महाभारत में भी है जब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैंयाद रक्खो मैं तुम्हारा मित्र हूँ ” . आगे श्रीकृष्ण कहते हैं किमैं तुम्हारे पास आऊंगा ; मुझमे विश्वास करो और शांति में रहोभगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए आश्वासन से यह स्पष्ट होता है कि जब एक योगी बिंदु विसागरा (सिर के ऊपरी पिछले वाला भाग ) से तूर्य  (सिर का सबसे ऊपर का भाग ) तक के  सॉऊल  के पूर्ण विकास की अवस्था को पहुंच जाता है तब परमात्मा योगी का सच्चा मित्र बन जाता है। योगी बनने के लिए दिव्यता को प्राप्त होना अति आवश्यक है जो तृतीय वेंट्रिकल अर्थात बिंदु विसागरा पर स्थित होता है। कुछ समाज सुधारको को अपने आपको तृतीय वेंट्रिकल की अवस्था तक स्थापित करना चाहिए ताकि उनके द्वारा किये जाने कर्म सही दिशा (धर्म) के कार्य क्षेत्र में सके। इस स्थिति में आत्मा भव्यसॉऊल (डिवाइन साऊल ) कहलाती है।

. धनी समाज को दिव्य आत्मा (डिवाइन सॉऊल) की आवश्यकता है  

      धनी समाज सभ्यता और संस्कृति के मध्य संतुलन बनाए रखता है। सभ्यता वातावरण, आर्थिक सुधार और शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में समृद्धि कायम रखता है; जब कि संस्कृति समाज में युगो से प्रचलित विरासत, कला, संगीत, नाच गाना आदि को रखता है।

जब तक दोनों सौहादपूर्ण रूप से उन्नति नही करते हैं तब तक विभिन्न क्षेत्रो में असमानता बनी रहेगी। इसके कारण अपराध, गरीबी, समाज में अशिक्षा, समाज विरोधी तत्वों में वृद्धि की सम्भावना बनी रहेगी। उस स्थिति में एक सम्पन्न समाज की प्राप्ति कठिन है।

           चित्रदिन चर्या में कैसे साधित सॉऊल (डिविनिटी ) की आवश्यकता है ? संक्षेप में वर्णन करता है  कि जब भी समाज में विकसित आत्मा (साऊल ) का कुछ प्रतिशत उपस्थित रहता है तभी समाज में संम्पन्नता पैदा हो जाती है। फिर समाज में उपस्थित दिव्य व्यक्तित्व (स्वयं के अहसास से उत्पन्न) के कारण सम्पन्न और जीवंत समाज की प्राप्ति होती है। दूसरी ओर इसके विपरीत की स्थिति में सम्पन्न समाज अधिक समय तक नही ठहर पाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि ; समृद्ध समाज को इस तरह की ईश्वरीय प्रेरित आत्मा की आज्ञा द्वारा निर्देशित नहीं किया जाता।  उस परिस्थिति में संसार सभ्यता के लाभ प्राप्त नही कर पाएगा। फलस्वरूप बुद्धिमत्ता और सम्पन्नता चिरस्थाई रूप से विद्यमान नही रह पाएंगे। यही कारण है कि सभी धर्मो में दिव्यता को पोषित करने पर बल दिया गया है ताकि विकसित आत्मा सभ्यता तथा सम्पन्न और जिवंत समाज के सांस्कृतिक पहलू की रक्षा और निर्देशित करते रहे। इससे स्पष्ट होता है कि इस भौतिक संसार में दिन प्रतिदिन की जिंदगी में आत्मा का सम्पन्नता  को  व्यापक स्तर पर प्राप्त करने में बहुत उपयोगिता है। इसके अतिरिक्त विकसित आत्मा का आध्यात्मिक विकास में भी बहुत उपयोगिता है।

.  सांसारिक मामलो में आत्मा (साऊल) का  कैसे उपयोग किया जाए ?

    भौतिक संसार में आत्मा की उपयोगिता के दो अवयव है, पहला गुणो सहित और दूसरा आसक्ति युक्त संसार। गुणो सहित आत्मा की परिकल्पना की विधि जो शुद्ध , सनातन और भव्य प्रकाश है , अगली विधि  होगी।

आत्मा के अस्तित्व की परिकल्पना अनंत आकाश के परिदृश्य में की जानी। इसका अर्थ है : दिमाग में शुद्ध, दीप्तिमान  प्रकाश (फोटोन) की परिकल्पना और संसार तथा उससे जुडी वस्तुओं को उस प्रकाश की वाष्प में लाना ही विलय की विधि होना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्य को इस दिखाई देने वाले संसार को केवल आत्मा में ही बुद्धिमान तरीके से विलय करना चाहिए और लगातार इस आत्मा का एक दाग रहित अथवा शुद्ध आकाश के रूप में  विचार करना चाहिए।

         संसार का आत्मा में विलय अथवा आत्मा का संसार में विलय की तकनीक एक बार समझ में आने पर आत्माचेतना की उपयोगिता बहुत प्रभावी होगी और मनुष्य अन्धकार अथवा अज्ञानता में नही रहेगा। इससे भौतिक संसार में अधिक स्पष्टता, आत्मविश्वास और रचनात्मक दृष्टिकोण आएगा। यद्यपि सॉऊल (आत्मा) की अनुभूति एक जटिल विषय है लेकिन सच्चे ज्ञान और चिंतन से इसे सुगम किया जा सकता है।

         आत्मा की प्रभावशीलता को दिन प्रतिदिन के जीवन में प्रयोग में लाने के ध्यान (मैडिटेशन ) जैसे  दूसरे उपाय के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि ध्यान (मैडिटेशन) जिवंत समाज और शांतिप्रिय संसार प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है जहां जीवात्मा और आत्मा की विशेषताओं  को चेतना के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। 

. आत्मा (सॉऊल) और दिमाग (माइंड )

              आम आदमी के मन में प्रश्न उठता है कि क्या आत्मा (सॉऊल ) और दिमाग (माइंड) एक दूसरे से संबंध रखते है , क्या वे स्वतंत्र है और क्या वे एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं ? विश्लेषण दर्शाता है कि वे एक दूसरे से बहुत संबंध रखते हैं और एक दूसरे पर  तब तक  बहुत निर्भर हैं जब तक कि आत्मा प्रकृति की पकड़ में रहती है। उदाहरण के तोर पर दिमाग के विभिन्न स्तर चेतना के विभिन्न अंशो का प्रतीक है जो आत्मा की स्थिति को प्रकृति की पकड़ में भिन्न स्थानों पर दर्शाता है। चेतना जैसे विषय पर विचार करते समय दिमाग भी महत्वपूर्ण विषय है जिसका आत्मा (साऊल) जैसे विषय की स्पष्टता पर प्रकाश डालने के लिए गहराई से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। कई बार जब परमात्मा के लिए  सुपर चेतना (सुपरकॉन्सियसनेस) जैसे शब्द का प्रयोग होता है तब सॉऊल (आत्मा ) को  कॉन्सियसनेस (चेतना) के नाम से भी जाना जाता है।

       जब आम आदमी दिन प्रतिदिन की दिनचर्या में आत्मा की महत्ता को समझने लगता है तब उन्हें आत्मा से संबंधित ज्ञान होने की आवश्यकता है। आत्मा की जटिलता को सुलझाने के लिए मनुष्य को दिमाग, ज्ञान शक्ति और आत्मा जैसे कारको के आपसी संबंधो पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है। समुचित ज्ञान प्राप्ति के लिए इन कारको के विश्लेषण की गतिविधि का मंच स्थापित करने की आवश्यकता है। आत्मा और दिमाग में भिन्नता, ध्यान के माध्यम से आत्मा की स्वतंत्रता, कैसे तृतीयआँखध्यान आत्मा की छानबीन करने में मदद करता है ? दिमाग की त्रुटि केवल दिमाग ही पता लगा सकता है, जीवन की बड़ी बाधाओं को पार  करने के लिए शक्तिशाली दिमाग की आवश्यकता, ब्रह्माण्ड में आत्मा की कल्पना, दिमाग का बहुमुखी होने से आत्मा के साथ मिलने में सहायता करना, ग्रहता आत्मा के लिए ध्यान आवश्यक है और विकास के लिए आत्मा की शुद्धता जैसी विशेषताओं पर यह अध्याय संक्षेप में प्रकाश डालता है।

. आत्मा को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता  

    मानव आत्मा की जांच पड़ताल करना हर मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। मानव आत्मा अनंत ज्ञान की श्वसन प्रक्रिया है। अनंत ज्ञान (ईश्वर ) और आत्मा के बीच में एक व्यावहारिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा आत्मा को ईश्वर के प्रतिबिम्ब के रूप में समझा जा सकता है। यह समझ मानव प्रणाली में उपस्थित  कुछ आवरणों को विलुप्त करने पर निर्भर करती है। कुछ स्कूल के अनुसार यह अनंत ज्ञान (ईश्वर और उसका आत्मा रूपी प्रतिबिम्ब ) सदैव नश्वर रहता है। यद्यपि मनुष्य आवरणों के कारण सामान्यत इससे अभिज्ञ रहता है। एक आवरणआत्मा सब जगह कैसे है ?” जैसे प्रश्न में निहित है। यह कहा जाता है कि आत्मा निराकार है। यदि यह निराकार है तो किसी स्थान पर कब्जा कैसे कर सकती है ? प्रत्येक वस्तु जो किसी जगह को घेरती है, आकार लिए होती है। निराकार ही केवल अनंत हो सकता है। अत प्रत्येक आत्मा (साऊल) सब जगह है। अब सवाल यह शेष रह जाता है कि आखिर आत्मा रहती कहां है ? आत्मा उज्जवल शरीर के पीछे रहती है। इस अवधारणा को स्वामी विवेकानंद के विचारों की सहायता से सब जगह वर्णन किया गया है।

. एक आदमी के दिमाग (माइंड) और आत्मा (सॉऊल) में अंतर्

    दिमाग (माइंड) पांचो इन्द्रियों और आत्मा (अनंत तथा अविनाशी ) के बीच में एक माध्यम (एजेंसी) है।  दिमाग से आत्मा बनने की प्रक्रिया को समझने की आवश्यकता है। आदमी की स्वतंत्र एजेंसी ऐसे दिमाग पर स्थित नहीं है जिसकी सहभागिता सात्विक प्रकृति के गुणो वाली इन्द्रियों से है ; उसके लिए यह एक बंधन है। वहां कोई आजादी  नहीं है जिसके कारण दिमाग का आत्मा में विकास की प्रक्रिया को व्यवधान का सामना करना पड़ता है। यदि इस रूकावट को हटा दिया जाए तो आदमी के दिमाग का फैलाव चित (माइंडस्टफ) क्षेत्र में होने लगता है और ये आत्मा के गुणो को प्राप्त कर लेती है और अंत में आदमी दिमाग रहकर आत्मा हो जाता है। आत्मा सदैव स्वतंत्र , बंधनरहित और अविनाशी है। यहां पर आदमी की स्वतंत्रता आत्मा (सॉऊल) के रूप में प्रतिबिंबित होती है। आत्मा सदैव स्वतंत्र है जब कि दिमाग की पहचान उसकी संक्षिप्त तरंगो (वृतियों) से है। इसके कारण यह आत्मा की दृष्टि खो देता है और समय, शून्य, माया (टाइम, स्पेस ,माया ) के जाल में फंस जाता है। माया अवधि में दिमाग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

. दिमाग के कार्यो द्वारा आत्मा स्वतंत्र और असीम है

     आत्मा इन्द्रियों, मन और बुद्धि द्वारा बंधी हुई है और ये तीनो प्रकृति के दुःख में स्थित हैं। इसका तातपर्य यह हुआ कि ये भी प्रकृति का हिस्सा हैं। आत्मा सदैव स्वतंत्र है लेकिन जब यह जीवात्मा बन जाती है तब यह इन्द्रियों , दिमाग और बुद्धि के प्रभावों को स्वीकार कर लेती है। इस प्रकार आत्मा जीवात्मा बनने की प्रक्रिया से बंधी हुई है।     

आत्मा में पुरुषों की मुफ्त एजेंसी (चित) स्थापित है। आत्मा इस चित रूपी एजेंसी के द्वारा अपने आप को स्वतंत्र अनुभव करती है। दिमाग के बंधन के बावजूद आत्मा स्वतंत्रता मिलने पर इस तथ्य पर बल देती रही है। आत्मा द्वारामैं सदैव स्वतंत्र हूँ और मैं वह हूँ जो मैं हूँके रूप में स्वतंत्रता को व्यक्त किया जाता है। यह हमारी (स्वयं ) स्वतंत्रता है। आत्मा (वास्तविक सेल्फ का प्रतिबिम्ब) सदैव स्वतंत्र है। यही तरीका है जिससे आत्मा सदैव स्वतंत्र, बंधनमुक्त, अविनाशी और अनंत है। प्रश्न उठता है किआत्मा की स्वतंत्रता को प्राप्त कैसे किया जाए ?” आत्मा की स्वतंत्रता को ध्यान (मैडिटेशन) से प्राप्त किया जा सकता है।

ध्यान के माध्यम से आत्मा की स्वतंत्रतानामक चित्र संक्षेप में दर्शाता है कि एक आंतरिक शक्ति है जो आत्मा को प्रकृति के प्रभावों के दुखो से स्वतंत्र रखता है और यह शक्ति चित कहलाती है। चित दिमाग को अधिकतम सीमा तक फैलने में सहायक होता है।

    ध्यान (मैडिटेशन) अवधि में यह देखा गया है कि दिमाग की अंतर्मुखी प्रकृति  जितनी अधिक होगी जीवात्मा की स्वतंत्रता को आत्मा (सॉऊल की असीम और शाश्वत प्रकृति के संदर्भ में प्राप्ति में उतनी  ही सरलता होगी। इसको प्राप्त करने के लिए दिमाग को चितकाश (माइंडस्टफ ) अवस्था तक फैलाना होगा ताकि दिमाग अपने स्तित्व को समाप्त कर दे।

. आत्मगत बनने के लिए आत्मा की दिमाग के माध्यम से यात्रा   

     यह सार्वभौमिक सिद्धांत है कि आत्मा सदैव पवित्र और पूर्ण अवस्था में केवल तभी होती है जब इसकी प्रकृति किसी के दिमाग में (जो सही प्रक्रिया को प्रतिबिंबित करता है ) अधिक प्रतिबिंबित होती है। जैसे ही दिमाग बदलता है इसका चरित्र भी बढ़ता है।

दिमाग अधिक से अधिक साफ हो जाता है जो फलस्वरूप आत्मा का अच्छा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है।  ऐसा तब तक होता रहता है जब तक कि दिमाग अपेक्षित शुद्धि से आत्मा के गुणो को पूर्णरूप से प्रतिबिंबित नही करने लगता। ऐसे समय आत्मा मुक्त हो जाती है। ध्यान ( मैडिटेशन) की सहायता से ऐसी स्थित प्राप्त की जाती है।

        जब एक ध्यान योगी अग्ना  चक्र पर अधिक समय तक ध्यान लगाता है, दिमाग को शुद्धिकरण प्राप्त होता है। इस क्षण अग्ना की दोनों पंखुड़ियां विकसित हो जाती हैं और तीसरी आँख (शिव नेत्र ) का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। इस समय उच्च यात्रा के लिए आत्मा की स्वतंत्रता का मार्ग प्रसस्त  होता है।

       तृतीय चक्षु ध्यान (थर्ड आई मैडिटेशन ) नामक चित्र संक्षेप में दर्शाता है कि ध्यान की प्रक्रिया में योगी ध्यान लगाता है और आध्यात्मिक प्रायाणाम के माध्यम से अपेक्षित पथ के सहारे आगे बढ़ता है और कुण्डलिनी ऊर्जा को रीढ़ की हड्डी तक सक्रिय करता है और इसे तृतीय आँख के केंद्रशिव नेत्रतक लाता है। तृतीय आँख के केंद्र पर अग्ना चक्र स्थित है। चक्र की दोनों पंखुड़ियां, सिर के ऊपर सामने वक्र एक दुसरे को जोड़ते हुए, अग्ना शिवा की आँखों  का निर्माण करती हैं। योगी ब्रह्मा की गुफा के सामने इस तीसरी आँख का दर्शन करते हैं। भारत में समस्त विभिन्न पंथो का आत्मा के विषय में लक्ष्य एक ही है। सभी के पास  एक ही विचार है और वह है मुक्ति।

.. दिमाग कर्मसम्बन्धी (ऑब्जेक्टिव) से चेतनासंबंधी (सब्जेक्टिव) कब बनता है ?

        यह समझना बहुत आवश्यक है किचेतनासम्बन्धी ”  क्या है ? दिमाग को वस्तुओं को जानने और समझने के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह चेतनासंबंधी है। पूर्ण विकसित होने पर अथवा चित में विलय होने पर भी यह मूर्त रूप में प्रकट होने के अयोग्य है, के सन्दर्भ में भी यह चेतनासंबंधी है।  उस क्षण हम अपने दिमाग को जीता जागता कारण नही दे सकते  हैं।  इसको हम अपने अंदर से बाहर भी नही ला सकते है और इसका अध्ययन भी नही कर सकते हैं जैसे किसी वस्तु का बाहर अध्ययन करते हैं। यह बाह्यीकरण के अयोग्य है। यह हमारे अंदर चित में डूबा हुआ है। यदि चित में कोई अस्थिरता अथवा वृति नही है तो हम कह सकते हैं कि हमारे अंदर दिमाग विकसित अवस्था में है। इस संदर्भ में यह चेतनासंबंधी (सब्जेक्क्टिव ) अवस्था में है। लेकिन दिमाग की यह चेतना अवस्था में एक अनूठी पेचीदगी है जो साधरणतया हमारी समझ में नहीं आता। आगे विश्लेषण करने पर यह भी पता चलता है कि समय और शून्य में इसको वस्तु नही जाना जा सकता के संदर्भ में भी यह सब्जेक्टिव (चेतना संबंधी ) है। लेकिन दूसरे  संदर्भ में जब यह  अन्य मनुष्यो में भी उपस्थित रहता है, सब्जेक्टिव (चेतनासंबंधी ) नही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि चित प्रत्येक मनुष्य में भिन्न होता है जिसके कारण हममें उपस्थित दिमाग का विकास भी भिन्नभिन्न होगा।

       यद्यपि दिमाग का व्यावहारिक विशिष्टीकरण प्रत्येक मनुष्य में अलग होता है, चित की स्थिरता भी भिन्न होती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दिमाग और विकसित दिमाग (आत्मा ) संसार में सब जगह मौजूद है। दोनों में दिमाग ऑब्जेक्टिव ( वस्तुनिष्ट ) क्योंकि यह सबमें भिन्न है जब कि चित सबमें वही है। यही कारण है कि दिमाग का एक भाग ऑब्जेक्टिव है जब कि दूसरा विकसित भाग (चित) सब्जेक्टिव है। दिमाग उच्च स्तर पर भी त्रुटि बरकरार रखता है लेकिन विस्तृत दिमाग इसका पता लगाकर इस पर विजय प्राप्त करता है।

 

. दिमाग की त्रुटि का पता दिमाग ही लगा सकता है   

        दिमाग में उत्पन्न त्रुटि अथवा गलती को कभी कभी सामान्यत दिमाग द्वारा ही ठीक कर लिया जाता है। अब क्या किया जाना चाहिए? व्यक्तित्व, दिमाग और चेतना प्रभावित होती है। जब कर्ता ही प्रभावित हो जाता है, तो भयंकर गलती करने पर कर्म भी प्रभावित  होता है। ऐसे समय बुद्धि और अहंकार चुपचाप खड़े रहते हैं जैसे उन्हें कुछ मालूम ही हो। कर्म और फल के मध्य का द्वन्द रुक जाता है और कोई विपदा आने का अंदेशा हो जाता है।

     हस्तलिपि में वर्णित कहानी की सहायता से इस परिदृश्य को समझाया जा सकता है जहां देव और अश्रु के मध्य युद्ध होता है। देवो का राजा इंद्र भी अश्रु (वृति ) के साथ लड़ाई में प्रभावित होता है। तब देवगुरु भगवान बृहस्पति इंद्र  की रक्षा के लिए आते है।

     इंद्र के साथ ऐसा होते देखकर भगवान के शिक्षक बृहस्पति इंद्र के दिमाग से बाधाओं को दूर करने के लिए वेद मंत्रो का उच्चारण करते हैं। वेदो का उच्चारण करके इंद्र के दिमाग से वृति निकाल देते है। इंद्र तब बौद्धिक वज्र का प्रयोग करके वृति पर आक्रमण कर बुद्धि को पुन प्राप्त कर लेते हैं। इस क्षण उसने वाह्य वज्र का प्रयोग नहीं किया जो वह अब तक प्रयोग करता रहा था।

       यह स्पष्ट करता है कि दिमाग में मौजूद विचार अथवा हथियार भौतिक हथियारों से अधिक शक्तिशाली और प्रभावशाली हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि दिमाग में जो कुछ भी है उस पर आक्रमण नही किया जा सकता तो हथियार से और ही बाहर से प्राप्त अन्य किसी साधन से। इससे निष्कर्ष निकलता है कि दिमाग की किसी भी गलती अथवा त्रुटि को केवल अपने स्वयं के उच्च दिमाग से अथवा अपने अंदर मौजूद गुरु से ही पता लगाया जा सकता है। अपने दिमाग से किसी भी परिस्थिति का सामना, आक्रमण, बचाव किया जा सकता है।

     दिमाग की शक्ति के विषय में महाभारत काल में भगवान कृष्ण द्वारा राजा युधिष्ठर को भी उजागर किया गया है। भगवान श्री कृष्ण युधिष्ठर को स्पष्ट करते है किहमारी मुशीबत हमारे दिमाग मे ही है। (चाहे वह कमजोर अथवा शक्तिशाली हो ) किसी फौज या हथियार (बाहरी कारक ) की तुलना में

            श्री कृष्ण जी आगे विस्तार से बताते हैं कि जब आंतरिक महाभारत युद्ध चल रहा होता है तब उसमें आंतरिक भीष्म ,द्रोण, और आंतरिक रूकावट के रूप में कर्ण होता है तो कोई भी अस्त्र जो वाह्य महाभारत युद्ध में प्रयुक्त होते रहे हैं, का इस युद्ध में कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसलिए हम दिमाग रूपी हथियार का प्रयोग कर कपट रूपी शत्रु को मार सकते हैं।

 . ब्रह्माण्ड में आत्मा (उज्ज्वल शरीर) की कल्पना कैसे की जाए ?

        ब्रह्माण्ड में  आत्मा के रूप में विकसित दिमाग की विशेषताओं का अवलोकन कर लिया गया है। आकाश में तारों के समूह, दूधिया आकाश गंगा, सौर मंडल में ग्रह और पृथ्वी पर वस्तुओं के रूप में चमकीले पिंड दिखाई दे रहे हैं। यह चमकीला पिंड और शरीर आखिर में एक पिंड ही है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी पिंड सकल अथवा शूक्ष्म पदार्थ से बने हैं। इससे यह स्पष्टीकरण निकल कर आता है कि जो कुछ भी आकार बन चुका है वह सीमित है और शाश्वत नही हो सकता। पदार्थ की हर अवस्था में परिवर्तन जन्मजात है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जो परिवर्तनीय हो, वह शाश्वत भी हो जाए। यही आत्मा कहलाती है। तब यही आत्म विचार अपरिवर्तनीय पदार्थ की शक्ल में बदल जाता है जो मानव शरीर और अन्य सभी चमकीले पदार्थो में विद्यमान है। यहां इसको अनेक परिवर्तन करने होते हैं।

 

. दिमाग का पूरा अंतर्मुखी होना आत्मा से मिलने में सहायता करता है।

     मनुष्यों में सॉऊल (आत्मा) हृदय में जीवात्मा के रूप में विराजमान है। आत्मा अनंत और शाश्वत होते हुए तीसरी वेंट्रिकल (सिर का ऊपरी पिछले हिस्सा) में परमाणु कण के रूप में रहती है। इस परमाणु कण के पीछे दीप्तिमान प्रकाश है। इस मोड़ पर यह गहरा है। गहराई में उपास्थि यह तत्व ही साऊल है, आत्मा नामक आवश्यक आदमी है। साऊल और ज्ञानेन्द्रियों के बीच दिमाग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्राय दिमाग ज्ञानेन्द्रियो द्वारा आकर्षित हो जाता है और बहिर्मुखी बन जाता है। हमें दिमाग को प्रत्याहारा की सहायता से अंतर्मुखी बनाना है। ऐसा करते समय हमें दिमाग को आंतरिक दिशा में मोड़ना है और सॉऊल के संग मिल जाने देना है।

         चित में फैलाव के बाद जब दिमाग सॉऊल  के साथ बिना किसी वृति के मिल जाता है उस समय दिमाग की प्रवृति इन्द्रियों से जुड़ने की होगी। उस अवधि में स्थिरता के दृष्टिकोण से दिमाग के घुमाओ का अवलोकन किया जा सकता है और तथ्यों को जाना जा भी सकता है। इस प्रकार का पर्यवेक्षण सब साधको में देखने को मिलता है। विकसित दिमाग को सॉऊल में जोड़ने के बाद साधक को इस निगरानी अवधि में और गहराई में जाना होता है। साधक द्वारा गहराई से किया गया यह परीक्षण व्यक्ति विशेष के दिमाग का सॉऊल में मिलने के कारण भिन्न होगा। संसार के अधिकतर स्वयंभू साधको में इन ऑब्जरवेशन पर विचारो में बहुत अधिक भिन्नता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि विभिन्न पर्वेक्षक में दिमाग, इसकी प्रकृति और इसकी शक्ति समान नहीं हो सकती। इस प्रकार के परिणाम इसलिए आते हैं क्योंकि अपनी छोटी सी गतिविधि और अन्य के दिमाग समानांतर और  समान नहीं हो सकते।  इसके अतिरिक्त, किसी पर्यवेक्षक के पास ऐसी सतही अभिव्यक्ति के वास्तविक चरित्र को बिना जाने भी कुछ जानकारी होती है। 

       रहस्यवादियों  द्वारा किये गए परीक्षण में भिन्न भिन्न  तथ्य प्राप्त  हुए हैं और इन्हें अपने प्रयोगो में सार्वभौमिक तथ्यों के रूप में प्रकाशित किया गया है। इस प्रकार हर धर्म और संप्रदाय के पास अपने तथ्य और आंकड़े हैं जिसको वे जाँच के लिए विश्वसनीय आधार होने का दावा करते हैं लेकिन वास्तव में यह उनकी अपनी कल्पना के अलावा कुछ नहीं है। ये आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं लेकिन योग, चित , जहां कोई वृति नहीं है, में दिमाग के वास्तविक फैलाव को समझने के लिए मापदंड उपलब्ध कराता है।  यह भी ध्यान देने योग्य है कि विभिन्न रहस्यवादियों  द्वारा किये गए परीक्षण को मापदंड नही माना जाना चाहिए। दिमाग का सॉऊल के साथ की तुलना और प्राप्ति के लिएयोग चूड़ामणि उपनिषदद्वारा सुझाए गए तथ्यों को ही उचित माना जाना चाहिए।  बिंदु विसारगा पर नीचे के बिंदु को उच्च बिंदु तक उठाने और जोड़ने की सहायता से दिमाग को साऊल के साथ मिलाने की विधि कोयोग चूड़ामणि उपनिषदमें समझाया गया है।

     चित्र संक्षेप मेंदो बिंदुओं के मिलनको दर्शाता है तथा यह भी दर्शाता है कि योगिक विधियों  से यह मिलन कैसे प्राप्त किया जा सकता है। चित्र यह भी स्पष्ट करता है  कि लाल रंग जो सिन्दूर के ढेर के समान है, सूर्य के स्थान पर स्थित है औरसफेद बिंदु ” “चन्द्रमाके स्थान पर स्थित है। दोनों  “बिंदुओंका मिलाप कठिन है।

    यद्यपि यह मिलन महा मुद्रा, योनि मुद्र, खेचरी मुद्रा और क्रियायोग जैसी योगिक विधियों से प्राप्त  किया जा सकता है वे दोनों को मूल स्थान तक उठाने और मिलाने में सहायता करती हैं। जब तक मनुष्यबिंदुतक उठकर उससे जुड़ नहीं जाता  और जिससे वहभौतिकसे शूक्ष्म तथा दैवी शरीर तक विकसित नहीं हो जाता तब तक वह जीवन और मृत्यु से मुक्ति नहीं पा सकता।

         मस्तिष्क  के सभी संकायों यथाआईक्यू”, “क्यूका विकास कर लेने पर सॉऊल (आत्मा )  को समझना और सरल किया जा सकता है। जब तक इन भागो का विकास नहीं हो जाता तब तक मस्तिष्क का उचित प्रशासकीय और प्रबंधकीय परिदृश्य बेतरतीब ही रहेगा।  आत्मा के चाहने वाले क्यू और एसक्यू का प्रयोग अपनी समझ के लिए कर सकते हैं। इस मुकाम पर आधुनिक शिक्षा के लाभ और हानि जैसे प्रश्न उठते हैं।

      योगिक अवधारणा को समझना थोड़ा कठिन है क्योंकि स्कूल और कॉलेज में ऐसा कोई पाठ्यक्रम नहीं है जो दिमाग की रिप्रोग्रॅमिंग के लिए योग की अवधारणा को उजागर कर सके। आधुनिक शिक्षा के ऐसे बहुत से लाभ हैं जो उसकी कमियों से जुड़े हैं। कमियों पर विजय के लिए दिमाग की रिप्रोग्रमिंग के लिए ध्यान (मैडिटेशन) एक साधन है।

.  प्राप्तकर्ता सॉऊल के लिए ध्यान आवश्यक है

     ज्ञानेन्द्रियाँ; मन और बुद्धि आदि अंतःकरण  जैसे अनेक कारको से जीवात्मा रूपी साऊल (आत्मा) बंधी हुई है। इसके अतिरिक्त माता पिता और गुणसूत्रों के डीएनए सहित वंशाणु को भी मिला दिया जाता है। सॉऊल से जुड़े ये सब कारक जीवात्मा को ग्रहीता (रिसीवर ) होने के लिए विवश करते हैं। इसलिए जीवात्मा की ग्रहीता के रूप में गतिविधि बढ़ाने के लिएअंतःकरणऔरप्राणकी शुद्धता आवश्यक है। इस मामले में आवश्यक शर्ते हैशुद्धता, ज्ञान के लिए प्रबल ईच्छा, दृढ़ता और उन्ही पर काम क्या जाना है। यदि सॉऊल के संबद्ध कारको में शुद्धता प्राप्त नही की जाती है तो कार्यवाही करने के कारणों और सॉऊल के मध्य रुकावट पैदा होगी। कोई भी अशुद्ध आत्मा  (साऊल ) धार्मिक नहीं हो सकती। यह एक बड़ी शर्त है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शुद्धता हर तरह से पूर्णरूपेण आवश्यक है। दूसरी शर्त है ज्ञान प्राप्ति की प्रबल ईच्छा। ज्ञान वेद, शास्त्रों, उपदेशो के माध्यम से प्राप्त  सकता है। लेकिन उसे (ज्ञान) सरल कारगर बनाना कठिन कार्य है जिसके कारण हममें से अधिकतर ज्ञान की समान पृष्टभूमि रखते  हुए भी धार्मिक रूप से अलग विचार रखते हैं।  जब तक हम ज्ञान आधारित धार्मिक गतिविधि और विचारों को शुद्ध नहीं करते हैं तब तक धर्म बहुत कठिन चीज है और इतना आसान नहीं है।ज्ञान की समान पृष्टभूमि रखते हुए भी हम धर्म में इतने अधिक भिन्नता क्यों रखते हैं ?” जैसे प्रश्नो का उत्तर देने से इसका स्पष्टीकरण प्राप्त हो जाता है।

        ऐसा इसलिए है क्योंकि हम सदैव भूल जाते है कि धर्म बातें सुनने, पुस्तकों को पढ़ने तक में सीमित नहीं है बल्कि यह हमारी जन्मजात  प्रकृति के साथ हो रहा सतत संघर्ष है। इस अवधि में हम अपनी स्वयं की प्रकृति के संघर्षरत रहते है और विजय मिलने तक यह संघर्ष चलता रहता है।  पुरानी जन्मजात प्रकृति पर काबू पाने के लिए तथा परिवर्तन के लिए  विशेषकर ध्यान (मेडिटेशन) जैसी योगिक विधि सहायक सिद्ध होगी। साथ में आतंरिक प्रकृति को जीवात्मा की संयोजिकता के अनुकूल बनाने के लिए  भी सहायक सिद्ध होगी। इसके अतिरिक्त समृद्ध और जीवंत समाज के विकास के लिए भी ध्यान (मेडिटेसन) सहायक सिद्ध होगा। ध्यान (मेडिटेशन) को दिमाग के शुद्धिकरण की आवश्यकता है अन्यथा दूरगामी पहलू सार्थक नहीं होंगे।

. सॉऊल (आत्मा) के विकास के लिए शुद्धता की आवश्यकता   

      आम आदमी की समझ के लिए आध्यात्मक केवल वेद, उपनिषद और योग तक ही सीमित है। उपनिषदब्रह्मसूत्रके  साथ आध्यात्मिक विधि के सैद्धांतिक पहलू को उजागर करता है जब कि योग उसके व्यावहारिक पहलु को प्रदान  है।  ज्ञान के रूप में रोशनी को समझना आध्यात्मिक यात्रा में बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान में प्रारम्भ से अंत तक अशुद्ध साऊल (आत्मा) में किसी भी आध्यात्मिक प्रकाश का होना असम्भव है। ज्ञानेंद्रियों के प्रभाव पर विजय पाने के लिए अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार और चित ) में शुद्धता का होना आवश्यक है। निम्न प्राण को उच्च प्राण में एकीकृत करने की लिए पांच स्तरों वाली ऊर्जा (ज्ञान) के परिक्षेत्र में शुद्धता का होना आवश्यक है। जब तक अन्तःकरण और प्राण दोनों में शुद्धता नहीं जाती है तब तक सॉऊल (आत्मा) का प्रकाशमय विकास नहीं हो सकता।

. स्पिरिट  व्यावसायिक विचार (आत्मा) नहीं ला सकते

     सोचने का आध्यात्मिक तरीका काल क्रमबद्ध सोचने के  तरीके से इस संदर्भ में भिन्न है कि जब हम आध्यात्मिक रूप से सोचते हैं तब हम व्यावसायिक तरीके से नहीं  सोचते हैं। व्यावसायिक सोच में किस को लाभ होगा पर आधारित, क्या प्राप्त होगा क्या हम देंगे के सिद्धांत पर व्यवहार करते हैं।  ऐसी सोच में हम केवलदेने और लेनेके दृष्टिकोण से ही नहीं सोचते बल्कि किसको क्या लाभ होगा और जैसे को तैसा का दृष्टिकोण रखते हैं। ये सब सांसारिक सोचने के तरीके हैं।  इन काल क्रमबद्ध सांसारिक सोच के तरीके जो हमें दुःख देते हैं, की उसी तरह हमें कीमत अदा करनी पड़ती है। ईच्छा  पूर्ति होने पर हम परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया करते हैं।

        आध्यात्मिक सोच में किसी भी वस्तु के विषय में आध्यात्मिक निर्णय लेने की क्षमता है। यह चीजों के कार्यों की बजाय चीजों में भावना (स्पिरिट) को पहचानने के बराबर है। जब हम चीजों में मौजूद भावना (स्पिरिट) की पहचान करते हैं तब हममें स्वत नए प्रकार के रवैये का सृजन होता है।   इस प्रकार के रवैये का आकस्मिक सृजन नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे सृजन में सहिष्णुता, स्वीकृति, प्रशंसा, प्यार और कानून के अनुसार आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। यह प्रयत्न करने से नही आता है बल्कि स्वाभाविक अभिव्यक्ति से आता है। इस तरह सोच की हम मदद नहीं कर सकते  हैं। व्यापारिक, आध्यात्मिक जैसी  अनेक प्रकार की आचार नीति मौजूद हैं। ये दोनों आचारनीति एक दुसरे के विपरीत हैं। व्यापारिक आचार नीति में जिसका अनुसरण करने योग्य है उसी का आध्यात्मिकता में विरोध किया है।

     उदाहरण स्वरूप व्यापारिक आचार नीति अनुसारएक बुरे आदमी की सहायता नहीं की जानी चाहिएलेकिन आध्यात्मिक आचार नीति में ऐसा नही कहा गया है। जब भी हम प्रतिक्रिया करते हैं, अस्वीकार करते हैं, निंदा, घृणा की भावना पैदा करते हैं तो वह सामयिक आचार नीति की ओर इंगित करती है। इस प्रकार किसी परिस्थिति में आवेश में यदि हम प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं तब यह पूर्ण रूपेण सामयिक आचार नीति होगी। यह चीजों की आध्यात्मिकता से जुडी हुई नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आध्यात्मिक रवैया इनमें अच्छा भाव, तत्व लाना चाहता है कि सामयिक आचार नीति को मारना जो उनमें प्रवेश कर गई है।

      इसे प्राप्त करने के लिए हमें प्रत्येक में से अच्छाई ग्रहण कर लेनी चाहिए। साधु संत और आध्यात्मिक पुरुष ऐसा ही करते हैं। यह स्पष्ट करता है कि आध्यात्मिकता दूसरे प्रकार से करने का प्रयास करता है। इस प्रकार जब हम वस्तुओं में से अच्छाई, शाश्वत, आध्यात्मिकता को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं तब वस्तुओं में मौजूद (स्पिरिट) भाव हमसे आध्यात्मिक भाषा में ही वार्ता करने लगेगा। ऐसा विकास होने पर मनुष्य हमारे विरुद्ध नहीं बोलेंगे। दुनिया भी हमारे प्रति कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वस्तुओं की स्पिरिट (भाव) हमसे शाश्वत ढंग से बोलना प्रारम्भ कर देगी और वह भाषा सामयिक नहीं होगी।

     आम आदमियों के दिमाग (माइंड ) में यह द्वन्द चलता रहता है किकैसे भौतिक, व्यापारिक संबंधी स्पिरिट (भाव ) को कम किया जाए ?” क्या स्पिरिट (भाव ) के झुकाव के लिए कोई वैकल्पिक साधन अपनाया जा सकता है ? वास्तव में कोई छोटा रास्ता अथवा साधन नहीं है बल्कि संकल्प, निष्ठा, आत्म समर्पण (यदि प्राप्त किया जा सके)  बहुत कुछ सहायता कर सकते हैं। संकल्प को प्राप्त करने के लिए आसन, प्राणायाम, मैडिटेशन (ध्यान) जैसी योगिक विधियां आम आदमियों को ऐसे प्रश्नो का उत्तर पाने में सहायता करेंगी।

. आत्मा और अहंकार (सॉऊल और ईगो )

       संसार का हर धर्म साउल (आत्मा या रूह) तथा ईगो (अहंकार अथवा अहं ) दोनों में विश्वास करता है। जब  दैनिक जीवन में इनकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं, तब सिद्धांत, इनके आपसी संबंद्ध, यात्रा,और क्रियात्मक पहलु की विधि स्पष्ट नहीं होती हैं, और ही तब स्पष्ट होती है जब योग और मैडिटेशन (ध्यान) के रूप में होते हैं। सॉऊल (आत्मा ) और ईगो (अहंकार) के उदगम और उनके अस्तित्व के रूप पर से पर्दा उठाने का एक  छोटा सा प्रयास किया गया है। यह अध्याय इस पर भी प्रकाश डालता है कि मनुष्य में आत्मा (सॉऊल) इतनी कमजोर क्यों है ? आत्मा को प्रकृति और माइंड (दिमाग) से कैसे स्वतंत्र रक्खा जा सकता है ? और क्या सॉऊल(आत्मा) और ईगो (अहंकार) एक हैं ?

. सॉऊल (आत्मा) और ईगो (अहंकार) का ओरिजिन (स्त्रोत) क्या है ?

     आत्मा और अहंकार के स्त्रोत के विषय में भारतीय पौराणिक कथाएं काफी प्रमाण उपलब्ध कराती  हैं। ईश्वर अथवा परमात्मा नेशिव” (विज्ञान में अंतरिक्ष) औरशक्ति” (विज्ञान में ऊर्जा) नामक दो विशिष्ट तत्वों को प्रस्तुत किया है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए ये दोनों उत्तरदायी हैं। उत्पत्ति में ईश्वर (परमात्मा) की उपस्थिति नाभिक के रूप में रहती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मापूर्णभी कहलाता है अथवा सत्य उत्पत्ति से परे ईश्वर भी कहलाता है; जब कि शिव और शक्ति नाभिक के संग सृष्टि के परे ईश्वर कहलाता है। चूड़ामणि उपनिषद और अमृत बिंदु उपनिषद में नाभिक को बिंदु भी कहा गया है। उस नाभिक में परमात्मा के गुण  होते हैं और उसपूर्णका प्रतिबिम्ब आत्मा कहलाता है।

        शिव (अंतरिक्ष) की उत्पत्ति सबसे पहले हुई और यही अंतरिक्ष में बाद में उत्पन्न होने अन्य पदार्थो की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। प्राण शिव को प्रकृति से लाने के लिए उत्तरदायी है। यह प्रकृति के प्रमाण को दर्शाता है और यह परिमाण परमात्मा के परिमाण के जितना ही है  बड़ा है। यह स्पष्ट है कि परमात्मा प्रकृति से परे है; लेकिन नाभिक (जीवात्मा) प्रकृति की भूमिका में है।

     अन्तःकरण आकाश तत्व से प्रकट होकर उत्पत्ति के लिए पहला तत्व है और () मन () बुद्धि () अहंकार और () चित से मिलकर बना है। इसलिए अहंकार अन्तःकरण का मुख्य अंग है जो सभी भौतिक कार्यो की स्वीकृति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यही अंतःकरण  ब्रह्माण्ड में अवैध व्यापार के लिए उत्तरदायी है जहां अहंकार नियंत्रक शक्ति के रूप में कार्य  करता है। अहंकार की आत्मा से, जो हर प्रकार के पदार्थ की नाभि है, तुलना की जाती है। समानता के कारण अहंकार की जब वह शुद्धतम रूप में होती है, आत्मा (साऊल) से भी तुलना की जाती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अहंकार (अशुद्ध आत्मा) और शुद्ध आत्मा एक ही सिक्के के दो पहलु हैं।

. क्या आत्मा और अहंकार एक ही हैं ?

        तत्वसिद्धि हस्तलिपि बतलाती है कि अशुद्ध आत्मा अहंकार से समानता रखती है। यह हस्तलिपि यह संकेत भी करती है कि आत्मा और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। तब प्रश्न उठता है कि अहंकार आत्मा में परिवर्तित होता है। योगा चूड़ामणि उपनिषद बतलाती है कि जब मनुष्य ईश्वरीय  हो जाते हैं तो उनका अहंकार पिघल जाता है। उस समय परिवर्तित अहंकार आत्मा के रूप में बिंदु विसारगा (सिर में सबसे ऊपर) पर स्थित है। भौतिक विज्ञानं में इस चक्र (बिंदु विसारगा) को तीसरा वेंट्रिकल (हृदय के निचले भाग का कोश ) कहते हैं। स्वस्थ अहंकार प्राप्त करने के लिए आत्मा के उच्च स्तर (तीसरे वेंट्रिकल  के  नीचे ) को प्राप्त करना आवश्यक है।

.. स्वस्थ अहंकार (ईगो) को विकसित आत्मा (सॉऊल) की आवश्यकता है  

     आम आदमी अहंकार केंद्रित  होते हैं जिसके कारण जिंदगी की सब उलझन और समस्याएं उत्पन्न  होती हैं। जब दिमाग को स्वस्थ और फैलाव सहित बना लिया जाता है तो सांसारिक अहंकार, पोषित हो जाता है और स्वत्वामकता दूसरों  के साथ साझा करना प्रारम्भ कर देता है। आत्मा को निम्न चक्र (लोअर बिंदु ) से उच्च चक्र (हायर बिंदु ) तक उठाकर ही स्वस्थ अहंकार को प्राप्त किया जा सकता है  उस समय आम आदमी के अहंकार की स्वत्वामकता सम्पत्ति दूसरों के साथ तथ्यों और आंकड़ों को बिना किसी उलझन के साझा करना प्रारम्भ कर देती है।

      चित्रआत्मा को उच्च उलझन से निम्न उलझन तक कैसे उठाया जा सकता है?”  सक्षेप में दर्शाता है किकैसे स्वस्थ अहंकार के विकास को सुनिश्चित किया जाए मापन छड़ी स्वस्थ अहंकार के रवैये में हुए बदलाव को दर्शाएगी। () परिस्थिति के अनुसार अधिक सहनशीलता () सहयोगियों से प्राप्त तथ्यों को स्वीकारना () अच्छे कार्यो के लिए प्रशंसा की भावना और () सहयोगियों से बिना शर्त प्रेम, नामक गुण उसमें जाएंगे। इसका अर्थ हुआ कि आत्मा के उच्चीकरण से स्वस्थ अहंकार प्राप्त होता है जो दृढ़ता, स्वीकृति, प्रशंसा और दूसरों में प्यार के साथ कब्जे को साझा करने का अधिकार बताता है।

        स्वस्थ अहंकार की उपलब्धियों को सुनिश्चित करने के लिए हमें एक चरण से दूसरे  चरण तक उठना होगा। आत्मा का निम्न चरण (अनाहता चक्र अथवा ह्रदय केंद्र ) से उच्च चरण (तीसरा वेंट्रिकल या सिर का ऊपरी निचला भाग या बिंदु विसारगा ) तक उत्थान, उच्च उलझन से निम्न उलझन तक ही यह विकास है। आत्मा का सभी स्तर पर यह विकास है ताकि साधना इससे जुडी रहे। यह केवल एक बाहरी कर्म नहीं जो हम करते हैं। निम्न बिंदु से उच्च बिंदु के स्तर तक उठाने और मिलाने के समय इस उपलब्धता की विधि को समझाया गया है।

हमारे दिमाग में प्रश्न उठता हैक्या दिमाग का निम्न स्तर से उच्च स्तर तक विकास में कुछ भौतिक प्रयोग है ?” जीवंत समाज और गतिशील दुनिया से संबंधित कारकों के विकास के साथ बनाए रखने में जवाब निहित है। इसको प्राप्त करने के लिए दोनों मार्गो (इड़ा और पिंगला ) का विकास आवश्यक है।

. इड़ा और पिंगला आत्मा के क्षेत्र की ओर कैसे अग्रसर होते हैं ?

      इड़ा और पिंगला का संतुलन आत्मा के क्षेत्र की ओर अग्रसर करता है। इस विषय में यह ध्यान देने योग्य है कि आत्मा तीसरी वेंट्रिकल पर स्थित रहती है और वह पैरा सिंफटिकल सिस्टम (पी एस एन एस ) और सिंफतिकल सिस्टम ( एस एन एस ) से जुडी रहती है। जब सिंफतिकल सिस्टम से जुडी नस संतुलित रहती है तब पथ आत्मा के मार्ग की ओर अग्रसर है रहता है। बिंदु विसारगा पर आत्मा को समझने के लिए  राज योग का ध्यान (मैडिटेशन) सबसे अच्छा तरीका है।

      राज योग के विभिन्न उपाय सॉऊल और ईगो को समझने में सहायता करते हैं। सबसे अच्छा तरीका ध्यान में डूब जाना है। ध्यान में डूबने से पहले हमें ध्यान के सिद्धांत और उद्देश्य जिनका सब जगह उपयोग हो सके को समझना होगा।ध्यान के लिए आदर्श दशाचित्र में संक्षेप में दर्शा दी है।

    ध्यान के लिए आदर्श दशा इड़ा और पिंगला में  पैरा सिंफतिकल सिस्टम (पी एस एन एस ) और सिंफतिकल सिस्टम ( एस एन एस ) के सौहार्दपूर्ण, संतुलित कार्य करने पर निर्भर करती है। इड़ा और पिंगला के कार्य पैरा सिंफतिकलसिस्टम (पी एस एन एस ) और सिंफतिकल सिस्टम ( एस एन एस ) के अनुरूप होते हैं। पिंगला और इड़ा भौं (आई ब्रो) के केंद्र में मिलते हैं और नाक  के नथनों  द्वारा बाहर निकलते हैं। जब नाक का दाहिना नथना बहता है तब पिंगला  बहता है और भौतिक अथवा मर्दाना पहलू काम  करता होता है। भौतिक पहलू  का आम गुण है क्रियाशीलता। पाचन, मलत्याग, कठिन शारीरिक कार्य और तेज ह्रदय धड़कन के लिए पिंगला सबसे अच्छी दक्षता दर्शाता है।

 

          लेकिन उस क्षण इन परिस्थितियों में ध्यान का कोई भी प्रयास अत्यंत कठिन है। दूसरी ओर जब  नाक का बायां नथना बहता है, तब इड़ा बहता है, जीवन का मादा पहलू बलशाली  होता है तथा ध्यान अथवा मानसिक गतिविधि पसंद की जाती की हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इड़ा पथ का नियंत्रण मस्तिष्क के दाहिने गोलार्द्ध द्वारा है किया जाता है। जब यह गोलार्द्ध प्रभावी रहता है तो ध्यान (मैडिटेशन ) के लिए अनुकूल परिस्थिति रहती है। यद्यपि सांस का समान और धीरे धीरे आना ध्यान के लिए सर्वोत्तम स्थिति होती है ताकि सुषुम्ना ऊपर की ओर खुल सके। ध्यान के उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए  अनेक विधि हैं। ध्यान की प्रक्रिया को करने से पहलेअग्ना चक्रको समझना आवश्यक है और उसको ढूंढ़ना भी है। मैडिटेशन (ध्यान) में यह भी विचारणीय है  कि अग्ना चक्र और विकसित जीवात्मा की संयोजिकता  को समझना भी है ताकि अनंत और शाश्वत आत्मा का अनुभव किया सके।

 

. मनुष्यो में सॉऊल (आत्मा) की दुर्बलता क्यों है ?

      उपनिषद में वर्णन किया गया है कि मानव शरीर में पांच आवरण हैं। ये आवरण हैंभोजन आवरण (अन्ना माया कोष), ऊर्जा आवरण (प्राणामाया कोष), मानसिक आवरण (मनामाया कोष), बुद्धि आवरण (विज्ञानमाया कोष), और परमानंद आवरण (आनंद माया कोष) इन सबमें अन्ना माया कोष ही मानव विकास में सबसे बड़ी रुकावट है। यह आवरण  शरीर की चेतना पाने के लिए, खींचने के लिए मुख्य आकर्षण है। आत्मा के सब ओर आवरण उपलब्ध कराने के लिए अन्य कोष भी उत्तरदायी हैं।

 

       इसके अतिरिक्त तमो, रजो, सतो नामक गुण, तीनो मनोदशा जैसे अचेतन अवस्था, चेतन अवस्था, अर्ध चेतन अवस्था  सहित, मानव आत्मा को निर्बल स्थिति में प्रतिबिंबित करने के लिए उत्तरदायी हैं। यदपि दिमाग की परम् चैतन्य अवस्था आत्मा की निर्बल स्थिति से स्थिरता में वृद्धि प्रदान करेगी।

     योग आवरण हटाने का कार्य करने के साथ साथ दिमाग को परम चैतन्य अवस्था में लाने का कार्य भी करता है। जब हम सतो गुण के साथ दिमाग की अपार चैतन्य अवस्था में होते हैं तब हम प्राय या तो विज्ञानमाया कोश  में अथवा आनंदमाया कोश होते हैं। पंच कोश  के विकास का संबंध जीवात्मा और आत्मा से भी  होता है और विश्लेषण  चाहिए।

. आत्मा से जीवात्मा की अनुभूति  

     आत्मा की अनुभूति ही हमारा ज्ञान और धर्म है। युगो तक इस पर चर्चा करने से अपनी आत्मा के विषय में जानने लिए सहायता नहीं मिलेगी जैसा कि प्राय आस्तिक और नास्तिक कर रहे है। आस्तिक और नास्तिक दोनों की आस्थाओं में अंतर है। यद्यपि आत्मा के सिद्धांत और नास्तिकता में कोई अंतर नहीं है। इसका मुख्य धर्मो यथा हिन्दु, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म में विस्तार से वर्णन किया गया  है।  आत्मा का प्रतिबिम्बअवधारणा की सहायता से इस अनुभूति का विश्लेषण  कर सकता है। 

 

इस विषय में यह स्पष्ट कर देना चाहिए किगतिशील आत्मानहीं होती है; आत्मा एक ही है। जीव अथवा जीवात्मा  ही शरीर का सचेत शासक है जिसमें जीवन के सिद्धांत जैसे पांच सांसारिक पदार्थ  (तन्मात्रा), पांच तत्व (पंचभूत), भौतिक कार्यो से जुडी पांच इंद्री (कर्मेन्द्री ) और ज्ञान से जुडी पांच इंद्री (ज्ञानेन्द्रियाँ) मिलकर  एक हो जाती हैं।

     ऐसे अवसर पर यह जीव ही आत्मा है। आगे चलकर चन्द्रमा और जल से भरे विभिन्न बर्तनो में इसके प्रतिबिम्ब में समानता के कारण आत्मा और वैयक्तिक जीवात्मा की अवधारणा को स्पष्ट  किया जा सकता है। चन्द्रमा आत्मा के स्वतंत्र, अनंत अनादि रूप को  दर्शाता है और वैयक्तिक बर्तन के प्रतिबिम्ब जीवात्मा को दर्शाते हैं।

     इसके अतिरिक्त आत्मा और वैयक्तिक जीवात्मा की अवधारणा को चन्द्रमा और पानी में इसके प्रतिबिम्ब में समानता की सहायता से भी समझाया जा सकता है। चन्द्रमा आत्मा के स्वतंत्र, अनंत अनादि रूप को  दर्शाता है और व्यक्ति विशेष में इसका प्रतिबिम्ब जीवात्मा को दर्शाता है। हममें ईश्वरीय आत्मा और मानव आत्मा रूपी दो तत्व है। साधु संत बाद वाले को छाया मात्र मानते हैं बल्कि पहले वाले को ही केवल असली चन्द्रमा मानते है।

       विश्लेषण करने पर जीवात्मा और आत्मा में आपसी संबंध  अहसास  है। जीवात्मा और आत्मा (सॉऊल)  मध्य, दिमाग जीवात्मा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।  दिमाग का आत्मा बनने से पहले की परिणामी प्रक्रिया को समझने लिए उनके (दिमाग और सॉऊल) के आपसी संबंधो का विश्लेषण करना आवश्यक है।

. कम विकसित मनुष्य सॉऊल (आत्मा) के विषय में अनभिज्ञ क्यों है ?

      मानसिक पर्दे और छिद्र में समानता उन कारणों को समझने में सहायता करेगी जिनके कारण हममें  से अधिकतर आत्मा को जानने में अनभिज्ञ हैं। हम स्वामी विवेकानंद द्वारा आत्मा के विषय में व्यक्त विचारों को याद  करते हैं। आत्मा अनंत परिधि अर्थात बिना परिधि का वृत है लेकिन उसका नाभिक केंद्र पर स्थित है। चित्र में दर्शाई गई तुल्यता के आधार पर मनुष्यों को उसी की परिकल्पना करनी चाहिए।

      आत्मा अनंत है। इसको बल्बद्वारा दर्शाया  गया है जैसा कि आत्मा दूधिया प्रकाश की तरह चमकदार है। दर्शक परदे पर आधारित आत्मा रूपी प्रकाश को देखेगा (दिमाग की अशुद्ध और बहुर्मुखी प्रकृति)  इसको बिंदुसे दर्शाया  गया है। आम आदमी के लिए दिमाग बहुर्मुखी रहता है और मस्तिष्क कीबीटा वेवसे प्रभावित रहता है। इस प्रकार दिमाग आत्मा के गुणो, विशेषताओं (प्रकाशमय स्थिति) को छुपाने के लिए पर्दा बन  जाता है। यही कारण है कि कम विकसित मनुष्य आत्मा (सॉऊल) के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं।

 

       आत्मा की स्पष्टा प्राप्त करने के लिए आत्मा रूपी बल्ब और दर्शक के बीच में विद्यमान परदे रूपी दूषित दिमाग को हटाना ही एक रास्ता है। दिमाग को स्वभाव और दोषो से स्वतंत्र कराकर और इस सीमा तक फैलाकर ही ऐसा करना सम्भव है। जब दिमाग शुद्ध और विकसित हो  जाता है तब वह पर्दे में छिद्र के समान कार्य करता है जैसा कि चित्र मेंसे स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है। छिद्र का आकार दिमाग की शुद्धता पर निर्भरता करता है। जब दिमाग चित के समान परिवर्तित हो जाता है तब छिद्र पूर्ण रूप से खुल जाता है। दूसरे शब्दों में जब पर्दे में छिद्र का आकार बड़ा हो जाता है तब प्रकाश की तीव्रता भी बढ़ जाएगी। छिद्र दिमाग के फैलाव को  दर्शाता है और  साथ ही प्रकाश की उपस्थिति को भी दर्शाता है जो कि आत्मा (सॉऊल) का गुण और विशेषता है। आत्मा एक विषय है, जिसका  उत्पत्ति के समय मौजूद तत्वों की सहायता से आगे विश्लेषण किया जा सकता है।

. आत्मा के एहसास के लिए तत्त्व और उत्पत्ति में आपसी संबंध

      मानव उत्पत्ति में इन तीनो तत्वों की बहुत बड़ी  भूमिका है। हम इस संबंध में आत्मा का अंतरिक्ष रूप, प्रकृति अथवा शक्ति का ऊर्जा रूप और अस्तित्व का  जीवात्मा रूप का उत्पत्ति में भागीदारी का स्मरण करते हैं। ईश्वर, परम परमेश्वर, परमात्मा सृष्टि से परे भगवान कहलाता है इसलिएवहउत्पत्ति में भाग नहीं  लेता है।

     यह विश्लेषण  दर्शाता है कि उत्पत्ति से पूर्व अंतरिक्ष के रूप में आत्मा (अथवा शिव) शक्ति के साथ दैविक जगत में जीवात्मा रूपी नाभिक में मिल जाते हैं। यह अस्तित्व भौतिक लोक के रूप में प्रकट होता है। उपरोक्त अवधारणा दर्शाती है कि इन तीन तत्वों के  कारण ही मानव उत्पत्ति हुई है और ऐसा ही चित्र में दर्शाया गया है।मानव उत्पत्ति के लिए तीन प्रारंभिक तत्वनामक चित्र संक्षेप में तीनो  के कार्य तथा पथ को  दर्शाता है।

मानव उत्पत्ति () प्राण अर्थात ऊर्जा () दिमाग अर्थात अंतरिक्ष () आत्मा अर्थात साऊल, चेतन स्वरूप नाभिक नामक तीन प्रारंभिक  तत्वों से बने बिंदु से हुई है। इन तीन तत्वों से ही इड़ा ,पिंगला और सुशुष्मना नामक तीन पथो का सृजन हुआ है। अभिव्यक्ति के दौरान ये तीनो तत्व तीन भिन्न शरीर यथा सकल शरीर, सूक्ष्म शरीर और दैवी शरीर को प्राप्त करते हैं।

     तीन पथो में इन तीन तत्वों का  क्रमिक विकास हमें आत्मा का बिंदु विसागरा पर स्थित होने का  अहसास कराता है। कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग और ध्यान योग जैसे विभिन्न उपायों में से ध्यान योग (मैडिटेशन योग) आत्मा को अहसास करने का एक साधन है।

      ध्यान के द्वारा क्रमिक उन्नति में प्राण, दिमाग और आत्म शक्ति के शुद्धिकरण और सिर के तीसरे वेंट्रिकल क्षेत्र  (बिंदु विसारगा ) जो कि आत्मा का स्थान है, तक उठाने  के लिए एक विनीत प्रयास किया जाता है।

 

. भगवान्  बुद्ध ने आत्मा को क्यों नजरअंदाज किया ?

      बौद्ध धर्म की अवधारणा को समझने के लिए हमेंक्या तीनो तत्व अन्योन्याश्रित हैं ?” जैसे प्रश्नो का विश्लेषण करना होगा। इस सम्बन्ध में हमें प्राण, दिमाग और जीवात्मा नामक तीनो तत्वों की पहचान को स्मरण करना होगा और ये क्रमश इड़ा पिंगला और सुषुम्णा पथ में कार्यशील हैं। तीनो तत्व निश्चित रूप से एक दूसरे पर निर्भर हैं।  एक संस्था का कथन है कि आत्म शक्ति नामक तीसरा तत्व, जो अनंत और  अपरिवर्तनीय है, अन्य दो (प्राण और दिमाग) जो पिंगला तथा इड़ा पर कार्यरत हैं, पर निर्भर नही है। यह संस्था द्वैतवाद में विश्वास करती है। अन्य अद्वैतवाद संस्था का कहना है कि ये तत्व एक दूसरे पर आश्रित हैं और सुषुम्ना में कार्यरत तीसरा तत्व (आत्मा और साऊल) क्रमिक प्रगति के दौरान अन्य दो को प्रभावित करता  रहता है। लड़ाई झगड़े की इस प्रकृति के कारण भगवान  बुद्ध ने अपने बौद्ध धर्म की अवधारणा से आत्मा (सॉऊल शब्द को हटा दिया। व्यावहारिक तोर पर ये तीनो तत्व अभिव्यक्ति दौरान भी और क्रमिकप्रगति दौरान भी आपस में जुड़े  होते हैं।

 

     सांस, दिमाग और मानसिक शरीर की संयोजिकता से इन तत्वों की एक दूसरे पर निर्भरता को स्पष्ट किया जा सकता है। इस तथ्य कोसांस, दिमाग और मानसिक शरीर के बीच की संयोजिकता नामक चित्र में समझाया गया है। मानव प्रणाली में जोड़ने वाले बिंदु की सुरक्षा सूंघने वाले बल्ब (आल्फैक्टरी बल्ब ) से  की गयी है। इन्द्रियों के कार्यात्मक पहलुओं के संचारण के लिए, न्यूट्रॉन मस्तिष्क की लिम्बिक  प्रणाली में जुड़ते रहते है।    

     सांस, दिमाग और मानसिक शरीर के बीच की जोड़ने वाली कड़ी सूंघने वाला  बल्ब (कशेरुकीयों अर्थात वर्टिब्रेट्स के अग्रभाग में स्थित संरचना जो नाक गुहा में कोशिकाओं द्वारा पाई गई गंधों के बारे में तटस्थ इनपुट प्राप्त करती है ) है और मस्तिष्क की लिम्बिक सूचना (न्यूट्रॉन का नेटवर्क जो एक साथ काम करता है भले ही वे व्यापक रूप से अलग हो जाएं)  जो शंकुधर ग्रंथि से जुडी  होती है। यह लिम्बिक प्रणाली की महत्ता को दर्शाता है जो वास्तव में मस्तिष्क कोशिकाएं और न्यूट्रॉन के बीच कार्यशील जुड़ाव का   निर्माण  करता है। इसका तात्पर्य है कि तीनो तत्व की संयोजकता सूंघने वाले बल्ब और शंकुधर ग्रंथि के साथ जुडी लिम्बिक संरचना पर निर्भर  करती है।

           यह बल्ब जो गंध, चेतना  का भी अंग है, पता लगा  लेता है कि कोन सा नथना बह रहा है और सूचना को  मस्तिष्क के दूसरे हिस्से को प्रेषित  करता है। यह एक बहुत जटिल अंग है जो हजारो नसों के साथ तंत्रिका तंत्र के साथ  जुड़ा है और जिसके लिए न्यूरोलॉजिस्ट कोई कार्यात्मक उद्देश्य नहीं ढूंड सकते हैं। इसके दो भाग  होते हैं और प्रत्येक हिस्सा प्रत्येक  ऊपर स्थित होता है। आध्यात्मिक गुरु इस संयोजिकता का प्रयोग निम्न दिमाग स्तर से मध्यम दिमाग तक ,यहां तक कि उच्चतम दिमाग तक विकसित करने में लाते रहे हैं। जब अग्ना चक्र विकसित रहता है तब यह संगम कामुक सूचना को शंकुधर ग्रंथि तक भेजने में ट्रांसमीटर प्रतीत होता है। यह तंत्रिका तंत्र का भी संगम है। आत्मा की गतिविधि का रहस्य का विश्लेषण अभी  किया जाना है।

. क्या मानव शरीर में आत्मा आती है ?

     स्वामी  विवेकानंद द्वारा दी गई आत्मा की परिभाषा में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा शरीर  में तो प्रवेश करती है और हीं बाहर निकलती है क्योंकि वह अनंत और सर्वव्यापी है। तब प्रश्न यह उठता है कि मानव उत्पत्ति अभिव्यक्ति अथवा विकास प्रक्रिया में कैसे तीन मौलिक तत्वों को रक्खे  हुए है ? उपनिषद में स्पष्ट उल्लेख है कि हम इंसान के रूप में प्राण, दिमाग और जीवात्मा नामक तीन मौलिक तत्वों के साथ आए हैं। आत्मा के विकास लिए तीन  में से दो तत्व बहुत महत्वपूर्ण हैं और वे हैंप्राण (पिंगला पथ में कार्यरत) और दिमाग (इड़ा पथ में कार्यरत) आत्मा सुषम्ना में निवास करती है और तीन गुणो से और पांच कोश सहित दिमाग के तीन स्तरों से भी बंधी हुई है।

     प्रश्नक्या मानव शरीर में आत्मा आती है?”  एक रहस्य बना  हुआ है। इसको प्रकृति में मौजूद हवा और गंध के के आपसी संबंध की सहायता से समझा जा सकता है। जब किसी कमरे में हवा प्रवेश करती है तब गंध स्वत अंदर जाती है।  ऐसा ही कमरे से बाहर हवा जाने पर होता है। इसका तात्पर्य हुआ कि हवा (प्राण) के आवागमन से गंध (जीवात्मा) का भी आवागमन होता  रहता है। ऐसा  जन्म और मृत्यु के समय समय होता रहता है।

 

         इसी प्रकार की घटना जन्म के समय होती है। जब बच्चा स्वतंत्र रूप से पहली सांस लेता है तभी सांस के साथ जीवात्मा (गंध के रूप में) शरीर में ह्रदय गुहा में प्रवेश कर जाती है। यह एक प्रकार की समझ है। वास्तव में बच्चे के साथ जीवात्मा का रहस्य उसकी माँ की कोख में गर्भ धारण के कुछ महीने बाद ही घटित हो जाता है जब प्राण बच्चे के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहां प्राण हवा के समतुल्य हैं और जीवात्मा हवा के साथ गई गंध के समतुल्य हैं। इसी प्रकार की समतुल्यता का प्रयोग मृत्यु के समय किया जा सकता है जब हवा (प्राण) शरीर से बाहर निकल जाती है और उस समय गंध (जीवात्मा) भी प्राण (हवा) के साथ बाहर जाती है। यह (जीवात्मा) दूसरे शरीर में प्रवेश के लिए तैयार रहती है।

      वैज्ञानिक भाषा में जीवात्मा के कार्य हम अच्छी  तरह से समझ  सकते हैं। जीवात्मा मुख्य आत्मा (सॉऊल) से एक परमाणु के रूप  आती है जो मानव तंत्र की ह्रदय गुहा में बेसिक बिल्डिंग ब्लॉक (बी बी बी ) के रूप में स्थापित हो जाती है। बी बी बी के रूप में जीवात्मा में बी बी बी संरचना के नाभकीय परमाणु के समान गुण होते हैं। यह (बी बी बी ) ऐसा  बंधन होता है जैसा कि न्यूट्रॉन और प्रोटोन के मध्य की  ऊर्जा का बंधन और जहां इलेक्ट्रान एक कक्ष में दोनों (न्यूट्रॉन और प्रोटोन ) के चारो ओर  चक्कर लगाता है।

      ठीक इसी तरह की घटना मानव तंत्र में घटती है। न्यूट्रॉन (जीवात्मा ), प्रोटोन (अस्थि गुहा) के साथ ऊर्जा का बंधन रखते हुए, दोनों इलेक्ट्रान (अस्थि गुहा के चारो ओर मांस ) से घिरे होते हैं।  मानव शरीर की यह संरचना परमाणु संरचना की  बी बी बी के समान है।

.. आत्मा की झलक कैसे पाई जा सकती है ?

      मेडिटेशन (ध्यान) से आत्मा (चमकीली प्रकृति) की झलक प्राप्त  की जा सकती है।  जब हम ध्यान में अग्ना चक्र (पियूष ग्रंथि, अधश्चेतक और चोटीदार ग्रंथि का संगम) पर अधिक अभ्यस्थ हो जा जाते हैं, तब आत्मा की झलक चमकीली प्रकृति के रूप में पैदा होती है।अग्ना का उच्च कार्य और प्रकाश की दृढ़तानामक चित्र में इसे स्पष्ट किया गया है।

       आत्मा की दृढ़ता को भली भांति प्राप्त जा  सकता है जब अग्ना चक्र अपनी  दो जुडी हुई लड़ी (अर्ध गोलाकार) पूर्ण हो जाता है। यह मस्तिष्क के तीसरे चक्षु (शिव नेत्र) के विकास  में भी सहायता करेगा, जिससे आत्मा की चमकीली प्रकृति समझ में आती है। इसके अतिरिक्त अग्ना को जाग्रत करने पर सूक्ष्म शरीरों की वास्तविक शक्ल भी समझ में आती है। दूरबोध, सूक्ष्म दृष्टि, परोक्ष श्रवण और अन्तर्दृष्टि ये सब चक्र  माध्यम से कार्य करते है। अग्ना पर ध्यान  लगाने से किसी भी ईच्छा संतुष्टि के लिएसिद्धिप्राप्त होती है और अग्ना के माध्यम से मिले आदेशों को पूरा किया जाना चाहिए।

      अग्ना चक्र के साथ तृतीय चक्षु ध्यान में परिपक्वता प्राप्त होने पर एक ध्यान योगी पूर्ण चेतना दशा को पहुँच सकता है जहां आत्मा की स्थिरता बिंदु विसागरा (तीसरा वेंट्रिकल) पर अथवा सिर के सबसे ऊपर पीछे की ओर प्राप्त  होती है। यह बिंदु (बिंदु विसारगा) ईश्वरीय होने की स्थिरता को भी दर्शाता है।

            अग्ना का स्वेत प्रकाश असीम शक्तिशाली है। कोई अपनी ईच्छा  शक्ति से अपनी चेतना को दूरस्थ स्थानों तक ले जा सकता है और इस प्रकार दूसरी वस्तुओं भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह ईश्वरीय प्रकाश है किसकी द्वारा धर्मिक पुरुष अपने भगवान का आभास करते हैं। साथ साथ चित से उठकर बुद्धि में प्रवेश हैं और ज्ञान की ईच्छा अनुसरण करती है। इस प्रकार का नजारा आनंद म्यान (आनंदमाया कोश) से परे प्राप्त होता है।

. आनंदमाया कोश में आत्मा का विकास कैसे होता है?

      आनंदमायाकोशा पूर्ण चेतना का ज्ञान क्षेत्र है जो सिर के ऊपर पिछले हिस्से (तीसरा वेंट्रिकल) में स्थित है। आत्मा का परमात्मा की ओर यात्रा में  यह लोकार्पण स्थल के समान है। 

यह ब्रह्माण्ड की ओर यात्रा का भी लोकार्पण स्थल है (मस्तिष्क में सूक्ष्म और मरह्माण्ड में दीर्घ ) पूर्ण चेतना का यह  क्षेत्र पंचकोश के ज्ञानमाया के उच्च ज्ञानक्षेत्र भी दर्शाता है।आनंदकोश मे फोटोन के कार्यनामक चित्र आनंदमाया से प्रारम्भ होकर परम चैतन्य क्षेत्र के कार्य को संक्षेप में वर्णन करता है।

      फोटोन  होने के कारण ही आत्मा की प्रकाशमय प्रकृति बनी रहती है।  आनंदमयकोश में प्रकाशफोटोन से अपरिचित संदेश आता है। सूचना की प्रत्येक मात्रा प्रकाशफोटोन से सम्पुटित होती है और परम् चैतन्य ज्ञान क्षेत्र में अंत:स्थापित हो जाती है।

     फोटोन परमाणु (परमात्मा) से स्वतंत्र है जो कि परमात्मा अथवा पूर्ण अथवा सत्य का गुण समझा जाता है। जैसे ही प्रकाशफोटोन आते हैं आत्मा (सॉऊल) का व्यक्तिगत शरीर से बाहर फैलाव होता चला जाता है।

         फोटोन से संपुटित ज्ञान दुर्बोध क्षेत्र शासन से संबंध रखता है और यह ध्यान में सचेत दिमाग से स्मरण शक्ति में छन जाता है। यही कारण  है कि व्यक्ति द्वारा उस अपरिचित ज्ञान का वर्णन करना कठिन है। अपरिचित सूचना तो बुद्धि से संबंध रखती है और ही मनोभाव से। सूचना परम् चैतन्य दिमाग  में आती है और वही  बाद में स्मरण शक्ति  के रूप में छन जाती है।

.१० आत्मा की पूर्णता (अतींद्रय क्षेत्र) की ओर यात्रा

     विकसित आत्मा प्रकृति की पकड़ से स्वतंत्र रहती है लेकिन उसे अतींद्रय क्षेत्र (साक्षी चैतन्य) तक पहुंचने के लिए यात्रा करनी पड़ती है जो प्रकृति और आत्मा से परे है। साक्षी चैतन्य के गुणपरम् तत्व के गुणनामक चित्र में संक्षेप में दर्शाए गए हैं।

अतींद्रय डोमेन में पूर्ण (परमात्मा अथवा चेतन ) व्यापक, अनंत और शाश्वत है।  यह प्यार, ईश्वरीय प्रकृति और सद्भावना के साथ ईमानदारी के मामले में अनुभव किया जा सकता है जो वे दया या करुणा और सत्य  के लिए क्लब (एकत्र ) करते हैं। जब तक प्रकाश (साक्षी चैतन्य ) का अनुभव नहीं किया जाता तब तक मूल की ओर यात्रा अधूरी है। आत्मा (सॉऊल) को प्रकृति के माध्यम से यात्रा पूरी करने औरप्रकृतिलयके बाद  ब्राह्मण का अनुभव करना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा को परम चैतन्य दिमाग में ज्ञानातीत  होना है जो कि काल, आकाश  करणीय संबंध से स्वतंत्र है।

.१०.  मानव मस्तिष्क (सूक्ष्म ब्रह्माण्ड) और ब्रह्माण्ड (वृहत ) कैसे जुड़ते हैं ?

      वैज्ञानिक रूप से यह देखा गया है कि ब्रह्मांड आत्मा को मात्राबद्ध, स्पिन, आंतरिक रूप से संपीड़ित बल (क़्यूंटम एनर्जी) से भरता है; कि आत्मा मस्तिष्क को  न्यूट्रॉन से भर्ती है। इसका तात्पर्य हुआ कि ब्रह्माण्ड में आत्मा मौजूद है और मस्तिष्कन्यूट्रोंस ब्रह्माण्ड से मानव मस्तिष्क तक सूचनाओं को आदान प्रदान करने के लिए, जोड़ने वाली लड़ी (लिंक्स) अथवा साधन हैं। योगी  ब्रह्माण्ड से मस्तिष्कन्यूट्रोंस के माध्यम से जुड़े होते हैं और ब्रह्माण्ड में विभिन्न डोमेन में मौजूद सूचना मूल रूप में एकत्र कर ली जाती है। जब योगी अज्ञात  सूचना को एकत्र करने में असमर्थ  होता है तबपूर्णद्वारा अंतर्बोध  ज्ञान प्रकट किया जाएगा। यह मस्तिष्क (माइक्रो) और ब्रह्माण्ड (मैक्रो) में आपस में जुड़ाव होने को  सिद्ध करता है और इसको मस्तिष्कन्यूट्रोंस से प्राप्त किया जाता है। ब्रह्माण्ड में आत्मा तारों के समूह द्वारा दर्शाया जाता है और सूर्य  उनमें से एक है।  मस्तिष्क में न्यूट्रोंस की संख्या ब्रह्माण्ड में तारों की संख्या के बराबर है।  यही कारण है कि प्रत्येक मानव ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप कहलाता है। जब यह आत्मा ईश्वरीय हो जाती है तब मस्तिष्क न्यूट्रोंस को मानव आत्मा द्वारा सक्रिय किया जाता है।

 आत्म बोध से आत्मा को समझना  

      आत्मा एक जटिल विषय होने के कारण अनेक ऋषि मुनियों ने इसे आसानी से समझने के लिए   टिप्पणी लिखी हैं। आदि शंकराचार्य ने बहुत पहले उपनिषद, वेदांता और आत्मा पर टिप्पणी देकर सनातन धर्म (वेदो में वर्णित सब धर्मो की मूल अवधारणा) की पुनर्स्थापना की। आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म का विरोध करके सनातन धर्म की मुख्य और स्वस्थ विशेषताओं की समीक्षा की। उसने पाया कि बुद्ध धर्म की जटिलता की तुलना में सनातन धर्म में बहुत सरल विशेषताएं हैं जिनको आम आदमी आसानी से समझ सकता है। आदि शकराचार्य ने वेद और उपनिषद  पर से पर्दा उठाकर द्वैतवाद और अद्वैतवाद अवधारणा में संतुलन स्थापित किया जो निर्माण, रखरखाव और विघटन के सिद्धांत को  स्पष्ट करता है।

 

    इस संबंध में आदि शंकराचार्य ने और अधिक उदाहरण तथा समानताएं प्रस्तुत की हैं ताकि पाठक आत्मा को अनुभव करने के लिए और आगे बढ़ सके। आत्मा को समझने के लिए और अतिरिक्त सूचनाओं को उपलब्ध कराने के लिए आत्म बोध की कुछ विशेषताओं को यहां प्रस्तुत गया है।

. आदि शंकराचार्य द्वारा उल्लेखित जीवात्मा और आत्मा में अंतर

       आत्मा का स्पष्ट चित्र हमारे सम्मुख नहीं  होता है इसलिए बहुत बार आत्मा को नीले आकाश जितना बड़ा समझने  हैं। शास्त्रों में व्यक्त गुण  दर्शाते हैं कि आत्मा अनंत है (निसंदेह आकाश जितनी विशाल) और अविनाशी है। इस संबंध में शरीर और अंगो के सब कार्य तथा गुण विवेक की कमी के कारण  आत्मा को कम आंकने की ओर इंगित करते हैं। शुद्ध आत्मा  दोषी नहीं होती है और इसमें चित और सत दोनों होते हैं। इसमें जन्म, आयु, मृत्यु, उपलब्धि  और असफलता  नहीं होती है। इसलिए इसको चिन्हित नहीं किया जा सकता है। शरीर और अंग अच्छा और बुरा दोनों  कार्य करते हैं। उनका परिणाम शूक्ष्मशरीरा को जाएगा  कि आत्मा को। यही कारण कि आदि शंकराचार्य तर्क  देते हैं कि आत्मा अंदर प्रकाश है कि जीवात्मा, इस जीवात्मा को जन्म लेने के लिए मजबूर किया जाता है जब तक कि यह पवित्रता को  प्राप्त नहीं हो जाती है और शुद्ध आत्मा (अथवा ब्राह्मण ) नहीं बन जाती।  

    जहां तक  शुद्ध आत्मा का प्रश्न है, शरीर और अंगो द्वारा किये कृत्य  मोह माया समान है। यह किसी नाटक में किसी चरित्र द्वारा किये जा रहे कृत्य समान है जिसका उस चरित्र को किये जाने मनुष्य पर नहीं पड़ता।

. आत्मा को ज्ञान से समझा जा सकता है

       अज्ञानतावश ही मनुष्य आत्मा पर पाबंदी लगाता है। जब अज्ञानता नष्ट  हो जाती है तब आत्मा की परिकल्पना उगते सूर्य से की जा सकती है, जिसके उगने से अँधेरे बादल बिखर जाते हैं। उदाहरण स्वरूप जैसे सूर्य की वास्तविक प्रकृति।

   बादलो द्वारा ढकी होती है ठीक वैसे ही शाश्वत और स्वयं प्रज्वलित आत्मा की वास्तविक प्रकृति  ढकी होती है। मन और प्राण के कारण अज्ञानता बादल के रूप में मौजूद रहती है जो प्रकृति के कारण  जीवित हैं।

     अज्ञानता के कारण सर्वव्यापी आत्मा भौतिक वस्तु के समान प्रतीत होती है। इस अज्ञानता को चिंतन औरअहम ब्रह्मास्मिअर्थात  मैं ब्रह्म हूँ, “अज्ञाना ब्रह्माअर्थात ब्रह्म ही शुद्ध सचेतना है जैसे वैदिक वाक्य  में मौजूद सत्यता के अनुभव के द्वारा नष्ट किया जाता है। इस बादल को हटाने का  दूसरा उपाय है ज्ञान से प्राप्त आत्मा को अनुभव करना। ऐसे ज्ञान को ज्ञान योग द्वारा प्राप्त किया जाता है।

 

. परमात्मा, आत्मा और जीवात्मा को समझने में सूर्य से समानता  

      सूर्य ब्रह्माण्ड में उपस्थित सभी प्राणियो को प्रकाश उपलब्ध कराता है। परमात्मा, आत्मा और जीवात्मा की सूर्य से समानता के लिए यह उचित होगा कि सूर्य के तीनो आयाम अर्थ सामने  का भाग, उसका तल और उसके पिछले हिस्से पर विचार किया जाए।

इसके लिए सूर्य के तीन विभिन्न कार्यो यथा () सूर्य की पीठ के  सभी गुणो  को रखते हुए () इसकी मुख्य समतल से पूरे संसार को प्रकाश उपलब्ध कराना और () पृथ्वी पर मौजूद सभी प्राणियो को अपनी किरणो से ऊष्मा उपलब्ध कराना;  की कल्पना करते हैं।  सूर्य के तीनो कार्यो की तुलना परमात्मा, आत्मा और जीवात्मा से की जा सकती है। उदाहरण स्वरूप सूर्य का पिछला  तल परमात्मा के गुण तथा शक्ति से मेल खाता है।  इसी प्रकार सूर्य की मुख्य सतह द्वारा उपलब्ध प्रकाश आत्मा के कार्यशील पहलुओं से मेल खाता है तथा उसी प्रकार सूर्य द्वारा सभी प्राणियो को प्रकाश व् ऊष्मा उपलब्ध कराना जीवात्मा के गुणो जैसा है। जब बादल सूर्य की ऊर्जा और ठंडेपन के प्रभाव को ढक लेते हैं तो सूर्य का अस्तित्व ही संदेहयुक्त हो जाता है।

          इस प्रकार की समानता चाहने वाले के दिमाग में स्पष्टता उपलब्धता कराएगी। इस  विषय में सूर्य के  हिस्से को परमात्मा का स्त्रोत समझते हुए और दीपमान, चमकदार सूर्य  के प्रकाश समान उसका प्रक्षेपण; परमात्मा और  आत्मा के गुणो को स्पष्ट करेगी। जीवात्मा ( ) प्राण अर्थात सूर्य की ऊष्मा  तथा () मन या दिमाग अर्थात सूर्य का प्रकाश नामक दो अंगो के अधीन कार्य करती है। रचनात्मक पदार्थ (तत्व) को समझा जाना है जो हमारे शरीर के निर्माण और उसकी कार्यशीलता के लिए उत्तरदायी हैं।

. आत्मा का तीनो शरीरो से संबंध

     हर जीवित प्राणी तीन प्रकार के शरीर रखता है जैसे स्थूल शरीरा; शूक्ष्म शरीरा  और कराना शरीरा। स्थूल शरीरा और शूक्ष्म शरीरा अज्ञानता (अविद्या) के प्रतिफल हैं।  

इसलिए अविद्याकरानाकैज़ुअल शरीर  कहलाता है जो समय आने पर स्थूल और शूक्ष्म शरीर की उत्पत्ति करता है। हमें परमात्मा के कार्यात्मक पहलु पर विचार करना होगा। जब परमात्मा ने सृष्टि की चाहत की तब उसने दो द्रव्यों () पुरुष अथवा शिवा अथवा ब्रह्मा  (शक्ति माया  और प्रकृति को प्रस्तुत किया। जीवात्मा , आत्मा और प्रकृति नामक तीन तत्व मानव उत्पत्ति के समय एक बूँद में आते हैं।  यही बूँद माता के गर्भ में कैज़ुअल, शूक्ष्म और स्थूल शरीर बनाना प्रारम्भ करती है। शूक्ष्म और स्थूल शरीर से पहले कसुअल शरीर का निर्माण होता है।  मानव निर्माण में इस प्रकार की अविद्या मौजूद रहती है।

       अविद्या, अज्ञान की कोई शुरुआत नहीं होती और परिभाषित  करना भी कठिन है।  यह कराना शरीर (कैज़ुअल बॉडी) भी कहलाती है। आत्मा इन शरीरो में से कोई भी नहीं है। आत्मा तो इन तीनो की गवाह है और उनके साथ पहचान कभी नहीं रखती। आत्मा स्थूल और शूक्ष्म शरीर की गतिविधियों को प्रज्वलित करती हैं। समस्त शरीरों से अपने आप को अलग रखती है। अज्ञानता के कारण तीनो शरीरों के गुण अवगुणो को आत्मा से जोड़कर देखते हैं।

.. आत्मा (सॉऊल) तीनो शरीरों से ऊपर है

           स्थूल, शूक्ष्म, और कराना (कैज़ुअल) नामक तीनो शरीर पानी के बुलबुले के समान समय सीमा में बंधे हुए हैं। आत्मा इनमें से कोई नहीं है और स्वयं में शुद्ध ब्रह्म है। जब कोई भेदभाव से यह अनुभव करता है कि वह स्वयं में शुद्ध ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है तब वह अपने स्वयं की पहचान तीनो शरीरो के साथ नहीं करेगा बल्कि सब द्वैतवाद के प्रति प्रतिरक्षित  रहेगा। अनुभूति के लिए हमें डी.एन.., प्रारब्धा, कारना और जींस के कारण बिंदु के विघटन को याद करना होगा। उपनिषद निम्न बिंदु (अशुद्धता के कारण) को वास्तविक बिंदु से जोड़ने की विधि बतलाता है। उपनिषद बतलाता है कि इस तकनीकी को जानने वाला ही योग का ज्ञाता होता है।

.. आत्मा का तीनो शरीर से पृथककरण

     हम शुद्ध साऊल (आत्मा) की बात कर रहे हैं।  ब्रह्म योगियों के लिए केवल आत्मा से ही वासता है। सब अंग और शरीर जोशरीराका निर्माण करते हैं उसके (आत्मा ) के लिए कोई महत्व नहीं रखते हैं। आत्मा इनमें से किसी के भी साथ बंधी नहीं होगी। इसलिए उसके लिए कोई जन्म है, बंधन है   ही इन्द्रियों से उत्पन्न किसी सुख दुःख में कोई रूचि है।  उन से बंधन मुक्ति पाकर ही वह शाश्वत परमानन्द पाने योग्य है। वेद महत्वपूर्ण सलाह देकर इनसे पृथक करण की विधि बतलाता है।  ये सलाह है -() नेति नेति (भी हम सोचते है वह अंतिम नही है )  () चरे वेति चरे वेति (आगे बढ़ो , और आगे बढ़ो ) .जैसा पहले स्पष्ट किया गया है कि भेदभाव की प्रक्रिया एक एक करके इस बात की पुष्टि करने पर किमैंयह नहीं है, यह नहीं है घटित हो रही है।

.. जीवात्मा बुद्धि में प्रतिबिंबित है

      जीवात्मा बुद्धि में जो शूक्ष्म शरीर का भाग है, में प्रतिबिंबित होती है। साऊल (आत्मा) और ईश्वर (परमात्मा) को समझने के लिए हमें  विकास करना होगा। इस संबंध में परमात्मा, आत्मा और जीवात्मा के गुण, विशेषताओं का पहले ही वर्णन किया जा चूका है। जब सृष्टि प्रारम्भ हुई तब परमात्मा बिंदु के रूप में आत्मा और जीवात्मा को प्रकृति अथवा शक्ति के संग पेश करता है। सृष्टि को निर्देशित करने के लिए आत्मा (जीवात्मा का प्रतिबिम्ब) को शक्ति प्रदान की जाती है। जब आत्मा  बिंदु के रूप में विभाजित होकर निम्न चक्र (अनाहता चक्र) पर आती है वह डी.एन.., कर्मा और जींस की संगति से जीवात्मा बन जाती है।

      आत्मा सर्व व्यापी है लेकिन यह पदार्थो में नही चमकेगी। यहविवेककी शुद्धतम स्थिति में ही उसमे प्रकट होगी। जैसे उत्तम शीशे में उत्तम प्रतिबिम्ब बनता है वैसे ही आत्मा विवेक अथवा चित के शुद्धतम (सभी वृतियों से स्वतंत्र) होने पर ही उसमें चमकेगी। यद्यपि जीवात्मा जो मुख्य बिंदु (आत्मा)  के विभाजन से आती है, अंतःकरण की बुद्धि में शूक्ष्म शरीर (सबटाइल बॉडी) के रूप में निवास करती है।

.. शूक्ष्म शरीरा में जीवात्मा की भूमिका  

      २८ तत्व हैं जो मानव शरीर निर्माण में उत्तरदायी हैं। वे हैंपांच तत्व (पंच महाभूत), पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, तीन आंतरिक तंत्र (अंतःकरण), पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच तन्मत्र और पांच प्राण। पांच बुनियादी तत्व (पंचमहाभूत); ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों और तन्मत्र के लिए सत्व, रजो और तमो नामक तीन गुणो को बनाने के लिए उत्तरदायी हैं। स्थूल शरीर तन्मत्र और ईगो (अहंकार और अन्तःकरण) को बरकरार बनाए  रखता है।

      शेष १७ तत्व शूक्ष्म शरीर में बने रहते हैं। वे हैं : () बायो प्लास्मिक ऊर्जा अर्थात प्राण () कर्मेन्द्रिय () ज्ञानेन्द्रिय और () अन्तःकरण की मन और बुद्धि।

प्राण हैंप्राण, अपाना, व्याना, उदाना और समाना। १० ऑर्गन्स हैं : अनुभूति के अंग यथा आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा; अंग गतिविधियों के हैं, यथा मुख, हाथ, पैर और मल त्याग के अंग।  शूक्ष्म शरीरा, सबटाइल बॉडी १७ सामग्रियों का संगठन है। वे हैं५प्राण, १० अंग (ऑर्गन), दिमाग और मस्तिष्क; वह यंत्र जिससे हम सुख दुःख अनुभव करते हैं। मृत्यु के समय शूक्ष्म बॉडी स्थूल बॉडी को छोड़ देता है और पुनर्जन्म लेता है। अद्वैता सिद्धांत के अनुसार यह आत्मा नहीं होती जिसका पुनर्जन्म होता है।

      स्थूल शरीर वह है जो बूढा होता है, बीमार पड़ता है और मर जाता है। यह पदार्थो से बना है। जिनके नाम हैं : () पंच तन्मत्रा और (ईगो) . मृत्यु  बाद कैज़ुअल बॉडी और सबटाइल बॉडी जिनमें  पंचमहाभूत का सार निहित होता है, अग्रिम यात्रा अर्थात पुनर्जन्म के लिए स्थूल शरीर को छोड़ देता है। इसका अर्थ हुआ कि शूक्ष्म शरीर मृत्यु के समय स्थूल शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म ले लेता है। अद्वैता सिद्धांत के अनुसार यह आत्मा नहीं होती जिसका पुनर्जन्म होता है। प्रश्न उठता है कि आखिर शरीर में जीवात्मा की विशेषताएं हैं कौन कौन सी ? जीवात्मा के कार्यात्मक पहलु पर विश्लेषण करना अपेक्षित है।

    जीवात्मा परमात्मा के रूप के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह स्वयं शूक्ष्म शरीरा में अपने आपको विलीन रखती है और मानव संबंधो के बंधनो में लिप्त रखती है और आनंद तथा कष्टों को अनुभव कराती है। यह अन्य अच्छे, बुरे कार्य भी कराती है। प्राकृतिक रूप से परिणाम आते हैं और शूक्ष्म शरीरा अच्छे, बुरे जन्म के रूप में ईनाम पाता है। पुनर्जन्म की प्रक्रिया तभी रूकती है जब शूक्ष्म शरीरा माया से बाहर जाता है। जीवात्मा अपने शरीर में आत्मा को समझता है और सांसारिक चीजों का परित्याग कर देता है और ऐसी जिंदगी को व्यतीत करना प्रारम्भ  देता है जिसमें परमात्मा के गुणो से मेल खाता है। तब परमात्मा में जो मोक्ष कहलाता है, शामिल हो जाएगा। जब तक मोक्ष प्राप्त  नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक जन्म में सांसारिक सुख दुःख इसका शिकार करते रहेंगे।

. पुनर्जन्म के कारण

      मृत्यु के बाद शूक्श शरीर और कैज़ुअल शरीर पुनर्जन्म कार्यक्रम के कारण हैं। कैज़ुअल बॉडी , सबटाइल बॉडी के लिए स्टीयरिंग मैकेनिज़्म का काम करता है और सबटाइल बॉडी में १७ तत्व होते हैं जो पुनर्जन्म के लिए पूर्णत उत्तरदायी होते हैं। योग आवश्यक तंत्र उपलब्ध कराता है जो इन तत्वों को वर्तमान स्वरूप से ऊर्जीकृत और परिवर्तित कर सबटाइल बॉडी के शुद्धिकरण के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।

      शरीर में उपस्थित २८ तत्वों में से १७ तत्व हैं : () प्राण जिसमें प्राण, अपाना, व्याना, समाना और उदाना होते हैं () वाणी, हाथ, पैर, मलमूत्र मार्ग नामक कर्मेन्द्रियाँ।  ये मुख्यत पिंगला पथ में कार्यशील  होती हैं।

       इसी प्रकार कान, नाक, त्वचा, जिह्वा, आँख ज्ञानेन्द्रिय हैं और ये  मन और बुद्धि के साथ इड़ा पथ में निवास करती हैं। इसी प्रकार सुषुम्ना में तन्मत्रा और अंतःकरण की ईगो (अहंकार) निवास करती है।  

      समान रूप से संतुलित मानव शरीर  के इड़ा पथ को धनात्मक पिंगला पथ को ऋणात्मक आवेश और सुषुम्ना पथ को तठस्थ आवेश की आवश्यकता  होती है। ज्ञानेन्द्रियाँ मन और बुद्धि को दबाकर इड़ा पथ का समस्त धनात्मक आवेश ग्रहण कर लेता है और सुषम्ना में उपस्थित तन्मत्र  को यह आवेश दे देता है। इस प्रकार सुषुम्ना धनात्मक आवेश में कार्यशील हो जाता है और इड़ा पथ अपना मूल आवेश त्यागकर तठस्थ हो जाता है।  इस प्रकार का मैकेनिज्म आणविक सरचना  ८८८ के समान मानव संरचना में असंतुलन उत्पन्न देता है। 

      उदाहरण स्वरूप धनात्मक आवेशित सुषम्ना बिना आवेश वाले इड़ा को चारो और से घेरे रखता है और ये दोनों ऋणात्मक आवेशित पिंगला से घिरे होते हैं। यद्यपि संतुलित परिदृश्य यह होना चाहिए कि सुषम्ना इड़ा और पिंगला के साथ बिना आवेश के रहे। यह परिदृश्य आणविक संरचना से मेल खाता है जहां ऋणात्मक आवेशित इलेक्ट्रान, धनात्मक आवेशित प्रोटोन और शून्य आवेशित न्यूट्रॉन बेसिक बिल्डिंग ब्लॉक (बी बी बी) संरचना में स्थिर होते हैं। यह दर्शाता है कि मानव संरचना का जीवात्मा और आणविक विन्यास की संरचना एक समान होती है। जब तक इड़ा पथ और सुषुम्ना के गुण तब्दील नही हो जाते हैं  तब तक प्रकृति के वर्तमान ढांचा की इन तत्वों पर पकड़ बनी रहना स्वाभाविक है और जीवात्मा स्वतंत्र नही होगी।

. आत्मा और इसका पांच कोशो से संयोजन

      जीवात्मा ह्रदय गुहा में निवास करती है और इस गुहा के चारो ओर पांच कोश की परतें होती हैं। यह सर्व विदित है कि पारदर्शी क्रिस्टल अपना मूल रंग खोकर परदे की पतली परतो का रंग ग्रहण कर लेगा। जब एक नीले पर्दे से ढका होगा तब शुद्ध रंगहीन क्रिस्टल भी नीला दिखाई देगा। इसी प्रकार से पांच कोशो से संयोजन के कारण शुद्ध आत्मा उनके गुण वाली प्रतीत होती है।

     पांच कोश हैं : अन्नामाया, प्राणामाया, मनोमाया, विज्ञानमाया और आनंदमाया। इन सबके विषय में विस्तृत रूप से चर्चा तैत्तरीय उपनिषद के द्वितीय अध्याय में की गई है। अन्नामाया कोश भौतिक बॉडी (स्थूल शरीर) होता है। प्राणामाया  कोश में पांच प्राण होते है जो इस भौतिक शरीर में जीवन सांस को  पहुंचाता है। मनोमाया कोश हमारी दोनों अनुभूति (सुख और दुःख ) के लिए उत्तरदायी है। यह हमारा दिमाग नियंत्रित करता है। विज्ञानमाया कोश हमारी  नियंत्रित करता है।

      उक्त तीनो कोश शूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं जहां पर कि जीवात्मा  अनाहाता चक्र पर निवास करती है। आनंदमाया कोश जो हमारेकराना शरीरसे संबंध रखता है और हमारी भावनाएं नियंत्रित करता है, असली आनंद नही है। वास्तविक और शाश्वत आनंद आत्मा से संबंध रखता है। अत : सिद्ध होता है कि तीनोशरीरोमें से में से कोई भी आत्मा नहीं है।

. आत्मा शाश्वत होने के अतिरिक्त कुछ नही करती  

      आत्मा कभी कुछ करती नहीं है। यह शाश्वत है, यह स्वयं में ज्ञान है। यह मानसिक विचारों और भौतिक क्रियाओं से प्रभावित नही होती है। बुद्धि मेंमैं जानता हूँअनुभव करने की क्षमता नही होती है। लेकिन व्यक्तित्व (जीवात्मा) अपनी स्वयं की प्रकृति की अज्ञानता के कारण शरीर के साथ गलत रूप में पहचानती है। उस प्रकार जीवात्मा भ्रम से बाहर होकर सोचती है कि वही दर्शक और ज्ञाता है। आत्मा द्वैतवाद दृष्टिकोण में भी पवित्र है। द्वैतवाद अवधारणा दिमाग और मस्तिष्क स्तर पर काम करती है। सम्बद्धता, ईच्छा, ख़ुशी, दुःख और इसी प्रकार की अन्य अनुभूति की मौजूदगी त्तभी तक महसूस की जाती है जब तक दिमाग या मस्तिष्क कार्य करता है। इनकी मौजूदगी गहरी निद्रा में महसूस नही की जाती क्योंकि तब दिमाग या मस्तिष्क अस्तित्वहीन हो जाता है। इसलिए ये सब अनुभूतियाँ दिमाग से ही संबंध रखती है कि आत्मा से। आत्मा को अपने निवास (अबोड) भी पहुंचना होता है जहां से उसे प्रतिबिम्बित होना होता है।

.. आत्मा बिना प्राण (सांस) और दिमाग (मनस) के होती है  

      “मैं मनस नही हूँ  इसीलिए मेरे अंदर दुःख है, आशक्ति है, द्वेष है और भय हैनामक एक उक्ति है। इस का अर्थ है कि मनस (दिमाग) से उत्पन्न व्याधियांसम्बद्धता, ईच्छा, ख़ुशी, दुःख बिंदु विसागरा पर पूर्णतया विलुप्त रहती हैं जहां पर कि आत्मा प्रवास करती है। स्वांस हीनता को प्राप्त करने का मामला भी ऐसा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ब्रह्माण्ड और शरीर में आत्मा मुख्य प्राण को कार्य करने के लिए सहायता करती है। इसलिए आत्मा प्राण से स्वतंत्र है।

      उपनिषदों में उल्लेख है कि आत्मा बिना सांस और बिना दिमाग के शुद्ध होती है। आत्मा में दिमाग (मनस) के कोई भी लक्षण नही होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनस केवल सुख दुःख को महसूस करता है। यह गहरी नींद के उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। जब हम गहरी नींद में होते हैं तब मनस के सुख और दुःख जैसी अनुभूति को महसूस नहीं करते। लेकिन आत्मा गहरी नींद में सदैव रहती है। इसलिए आत्मा मनस नही है। लेकिन उस समय भी प्राण (सांस) की उपस्थिति है। आत्मा जो दिमाग  से स्वतंत्र है, का परिदृश्य भिन्न है और उस स्थान से साँस प्रारम्भ होता है।

        “आत्मा बिना सांस और दिमाग के हैनामक परिदृश्य को ध्यान अर्थात मेडिटेशन में आसानी से समझा जा सकता है। ध्यान में पहले स्तर पर जहां तीनो (हैड,हार्ट एवं हैंड) का एक स्थान पर संयोजन होता है, की ध्यान की यात्रा प्रारम्भ होती है और यह स्थान अग्ना चक्र कहलाता है। ध्यान (मैडिटेशन) प्रारम्भ करने के लिए सांसहीनता और विचारहीनता जैसे मापदंड होने आवश्यक हैं। जब तृतीय चक्षु नामक गहरा ध्यान प्राप्त हो जाता है तब सांस और दिमाग की उपस्थिति प्राय समाप्त  हो जाती है और अधिक गहन ध्यान में साधक विसागरा बिंदु पर पहुँच जाता है जहां कि आत्मा वास करती है और साधक सांस तथा दिमाग से स्वतंत्र हो जाता है।  उस क्षण बिंदु विसागरा पर दीप्तिमान प्रकाश का अनुभव होता है कि आत्मा के अहसास का प्रतीक है।

.. आत्मा के गुण  

      आत्मा गुणोऔर क्रियाओं से रहित है। यह शाश्वत है, यह बिना किसी ईच्छा के, बिना किसी विचार के, वासना रहित, आकार रहित, अपरिवर्तनीय, सदैव स्वतंत्र और शुद्ध है। यहां आत्मा की प्रकृति का वर्णन किया गया है। यह शाश्वत है क्योंकि यह सीमा रहित, समय रहित, आकाश रहित है। यह आसक्तियों से मुक्त है क्योंकि इसका दिमाग से कोई लेना देना नही है। यह अक्रियाशील है क्योंकि इसका शरीर या अंगो से कोई संबंध नही है। आत्मा के गुणो को इस कथन में वर्णन किया गया है :“मैं अकेला, सुप्रीम ब्रह्म जो प्योर है, शाश्वत है, स्वतंत्र है, और जो अविभाजीय है, अद्वैत है और हर काल में अपरिवर्तनीय है ” . यह स्वयं में ज्ञान है अनंत है।

. जीवन मुक्ता कौन है ?

      जीवन मुक्ता अपनी आसक्ति अनित्य और वाहय खुशियों को छोड़, आत्मा से प्राप्त परमानंद से संतुष्ट रहती है और आंतरिक रूप से बर्तन में रक्खे दीपक के समान चमकती रहती है। जैसे ही  जीवन मुक्ता सभी इन्द्रियों से अपने आपको मुक्त कर लेता है वह  दिमाग को अंदर की ओर अभी भी माया मोह से मुक्त रखता है तब उसका दिमाग सुप्रीम ब्रह्म के आंतरिक प्रकाश को अनुभव करता है। आदि शंकराचार्य ने आगे आत्मबोध में इसका वर्णन किया है। यद्यपि वह उपाधि में रहता है फिर भी आसमान की तरह दाग रहित रहता है और वायु की तरह बिना किसी बंधन के विचरण करता रहता है।

     आत्मा के माध्यम से परमात्मा और जीवात्मा की कनेक्टिविटी जीवनमुक्ता के लिए टिकाऊ तरीके से  रहती है। जीवनमुक्ता आत्मा और जीवात्मा के बीच  तथा आत्मा और परमात्मा के बीच स्पष्टता (क्लैरिटी). जब तक जीवात्मा स्वतंत्र नही हो जाती है अथवा अपने गुणो के कारण अपने आप को परमात्मा का हिस्सा नही मानने लगती है तब तक जीवन जीवनमृत्यु का चक्र चलता रहता है। जीवन मुक्ता होने के पहले कदम के रूप में उच्चतर दिमाग का प्रयोग करके जीवात्मा को प्रकृति के बंधन से स्वतंत्रता के लिए एक प्रयास  होगा। (उच्चतर दिमाग स्वभावत अनाहटा चक्र तथा उससे ऊपर स्थापित रहता है). वह (जीवनमुक्ता ) जीवात्मा को प्रकृति के चंगुल से स्वतंत्र कराता है। आगे चलकर आत्मा (परमात्मा का प्रतिबिम्ब) के गुणो को परमात्मा के साथ मिल जाना होता है। तब जीवन मुक्ता योगी पूर्णता को प्राप्त होगा और चित्तावृतिनिरोध की स्थिति को प्राप्त होगा।  

..११ चित्तावृतिनिरोध की स्थिति

      बिंदु विसागरा पर मजबूती के साथ स्थापित हो जाना एक साधक के लिए उच्चतम स्थिति होती है जो कि आत्मा की म्यान है। जब उपाधि बर्बाद हो जाती हैं एक मनुष्य जो लगातार ईश्वरीय पर चिंतन करता है वह विष्णु, एक सर्वव्यापी आत्मा, में पूर्णत अवशोषित हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से जैसे कि पानी का पानी में, ब्रह्माण्ड का ब्रह्माण्ड में और प्रकाश का प्रकाश में अवशोषण जाता है। इस केस में दिमाग (बनावटी बुद्धि) माइंड स्टफ में ब्रह्मांडीय बुद्धि का पता लगाने के लिए विस्तार कर और मिल जाती है।

. ब्राह्मण  (अबोड) के गुण  

      जो ऊपर नीचे सब जगह व्याप्त है वही ब्राह्मण (अबोड) है। बिना दूसरे के यह एक है।  अनंत है, शाश्वत है, सच्चिदानंद से भरपूर है। यह केवल एक उपस्थित है। उस एक को ब्राह्मण (अबोड) समझा जाना चाहिए। ब्राह्मण का यह वर्णन मुंडका उपनिषद में दिया हुआ है जिसमें यह भी कहा गया है कि यह अमर है और आगे पीछे और चारो दिशाओं में मौजूद  है।

.. ब्राह्मण (अबोड) ब्रह्माण्ड से पूर्णत भिन्न है और यह हर चीज को रोशन करता है

      ब्राह्मण (अबोड) ब्रह्माण्ड से पूर्णत भिन्न है लेकिन ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई नहीं जो ब्राह्मण हो। यदि ब्रह्माण्ड में ब्राह्मण के अतिरिक्त कुछ मौजूद है तो वह मृगतृष्णा समान वास्तविक नही है जो में पानी जैसा अनुभव कराता है। यही कारण है कि परमात्मा साक्षी भी कहलाता है। यही कारण हैं कि यह ब्रह्माण्ड में सब जगह गवाह है लेकिन यह सबसे परे है।

      ब्रह्माण्ड में सब दिव्य वस्तुएं ब्रह्मा द्वारा रोशन होकर चमक रही हैं लेकिन उन वस्तुओं के से ब्रह्मा नही चमकता। यह आत्म बोध के श्लोक में पुन सुनिश्चित किया गया है कि ब्रह्मा की रोशनशक्ति के बिना इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं चमक सकता।

. ध्यान (मैडिटेशन) के द्वारा आत्मा की कल्पना

         केवल नेत्र ज्ञान की सहायता से हम आत्मा के सार्वभौमिक अस्तित्व होने की कल्पना कर सकते हैं। जैसे अँधा चमकीले सूर्य को नही देख सकती हैं वैसे ही अविकसित मानव आत्मा को नही देख सकता है। मेडिटेशन (ध्यान) नेत्र ज्ञान (आंतरिक बुद्धिमत्ता) को विकसित करने में सहायता करता है। गहरी निद्रा ध्यान में आत्म दर्शन का नजारा होगा। इसकी कल्पना ऐसे की जा सकती है जैसे चन्द्रमा ने बिंदु विसागरा पर प्रकाश कर दिया हो। निम्न बिंदु के मूल उच्च बिंदु में संयोजन की विधि योगा चूड़ामणि उपनिषद में दी हुई है।

      इस संबंध में यह उल्लेख करना उचित होगा कि मेडिटेशन (ध्यान) के चार चरण है जिनके नाम हैं (  )  एच (हैड, हार्ट, हैंड) का अग्नि चक्र पर संयोजन द्वारा ध्यान () अग्ना चक्र की दो पंखड़ियों की सहायता से तृतीय चक्षु ज्ञान () गहरी निंद्रा ज्ञान से आत्मा की कल्पना करना ()  मानसिक मृत्यु मेडिटेशन (साक्षी)  ध्यान। आत्मा  का अनुभव तीसरे चरण अर्थात गहरी निद्रा ध्यान में होता है।

.. आत्मा की तुलना ज्ञान के सूर्य से की जाती है

       अनेक अवसरों पर आत्मा  आंकलन सूर्य के साथ किया जाता है जो उगता है और आकाश और नीचे पूरी सृष्टि में प्रकाश ऊष्मा देता है। उदाहरण स्वरूप सूर्य ज्ञान का प्रतीक है क्योंकि वह हर वस्तु को प्रकाशमय और साफ़ करता है। जीवात्मा ज्ञान का सूर्य बनने से पहले, जो कि हृदय के आसमान में उगता है, अज्ञानता के अँधेरे को नष्ट करता है, सब चीजों में व्याप्त होकर उन्हें बनाए रखता है। सूर्य चमकता है  ब्रह्माण्ड की हर चीज को चमकीला बनाता है। ह्रदय का यहां अर्थ है उस स्थान पर दिमाग का कार्यक्षेत्र। चित  का आसमान आत्मा का स्थान है, जहां से महान विचार उठते हैं।  सूर्य को तुलना के लिए इसलिए लाया गया है कि क्योंकि वह नंगी आँखों द्वारा दिखने वाला प्रकाश का अंतिम स्त्रोत है।

     आत्मा सूर्य जैसी है जो आकाश के बीच में है और मन (प्रोटोन) और प्राण (इलेक्ट्रान) को साथ रक्खे हुए है। आसमान में  अँधेरे से यह उजागर होता है कि माइंड (मन) और प्राण अभी सबटाइल (शूक्ष्म नही हुए हैं ) तथा उच्चतर स्तर तक नही पहुंचे हैं। जब दिमाग और प्राण ऊपर उठकर मानसिक चैनल स्तर तक  जाते हैं तब सूर्य (साऊल और आत्मा ) उठकर अपनी तीसरी वेंट्रिकल की मूल अवस्था को पाने के लिए योग्य हो जाते हैं। जीवात्मा का ह्रदय से ऊपर उठना कई माध्यमों से  होता है जैसे भक्ति, भाव, कर्म, ज्ञान और  योग।

 

. आत्मा के  द्वारा सफलता

      प्राय  मनुष्य जीवन में  तभी सफलता पाता है जब वह खूब शिक्षित हो। नि:संदेह उच्च तकनीकी और विशेषज्ञता शिक्षा से बहुत से पुरुष जीवन में बहुत सफलता पाते हैं। इस विषय में कुछ बेन्स  ऐसी वैज्ञानिक और तकनीकी उच्च शिक्षा से भी जुड़े हैं। इस विषय में, सफलता उच्च तकनीकी और  विशेषज्ञता शिक्षा की अपेक्षा उन्नत आत्मा से भी प्राप्त की जा सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आत्मा की समझ और इसका विकास आंतरिक परिवर्तन के लिए उच्च शिक्षा प्राप्ति की तुलना में एक मजबूत आधार प्रदान करेगा।

     आधुनिक शिखा के गुण,अवगुण पर विचार साधारण कथन की सहायता से इसके दुष्परिणामो का विश्लेषण करने पर किया जा सकता है। साधारण कथन यह स्पष्ट करता है कि आधुनिक शिक्षा संस्कृति और चेतना का आंतरिक परिवर्तन उपलब्ध नही कराता बल्कि बुद्धि की बाहरी गतिविधि देता है। यह वैदिक शिक्षा के विश्लेषण से और अधिक स्पष्ट होगा जो प्राचीन काल  में सबसे पहले सर्वमान्य शिक्षा मानी जाती थी। आजकल वैदिक शिक्षा की अपेक्षा आधुनिक शिक्षा बहुत लोकप्रिय है। जीविका चलाने  लिए; नाम, स्थान, धन, पावर प्राप्त करने  लिए आई० क्यू० की वृद्धि होना बहुत आवश्यक है और सब आधुनिक शिक्षा में प्राप्त हो जाती हैं। उच्च शैक्षिक वर्ग के लिए भी सत्य प्रकृति की पहचान कठिन है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भौतिक और आध्यात्मिक संसार में मजबूत आधार खड़ा करने के लिए आत्मा की अवधारणा जो एक मुख्य विषय है, का अभाव है।

. आधुनिक शिक्षा का परिणाम   

      आधुनिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बुद्धि की वाह्य गतिविधि है कि संस्कृति और चेतना का आंतरिक परिवर्तन। आधुनिक शिक्षा शिक्षित मनुष्य में संसार का सामना करने के लिए अधिक साहस और विश्वास उपलब्ध कराकर कार्यकलाप की बाहरी कोर को स्पर्श करती है। इस प्रकार वाह्य रूप आंतरिक मूलतत्व को स्पर्श नही कर पाता है ठीक उसी प्रकार जैसे कोट हमारे शरीर को स्पर्श नही करता है। उच्च शिक्षित होने के नाते जो भी हम अपने जीवन में करते हैं वह हमको विकसित आई० क्यू० अवस्था में रखता है। सामान्यत हम झूटी संतुष्टि जो हमारे द्वारा किये गए कर्मो का प्रतिफल होता है, के कारण बिलकुल ठीक महसूस करते हैं।

      आधुनिक शिक्षा आई० क्यू० द्वारा अत्यधिक विकसित है लेकिन यह शिक्षा हमारी ई०क्यू० (भावनात्मक गुणक ) और एस०क्यू० (आध्यात्मिक गुणक) की वृद्धि में ठीक प्रकार से कार्य नही करती। सम्पूर्ण वैयक्तिक विकास  समग्रता के लिए इन तीनो कारको की आवश्यकता है। जब तक किन्ही भी साधनो से ई०क्यू० और एस०क्यू० में वृद्धि नही हो जाती तब तक हम विकलांग हैं। गुरुकुल शिक्षा (ई०क्यू० और एस०क्यू० के स्त्रोत) की अनुपलब्धता में योग इन पहलुओं का विकास करके इसकी क्षतिपूर्ति करेगा।

. ई०क्यू० और एस०क्यू० में वृद्धि के लिए योग कैसे काम करता है  

   आधुनिक शिक्षा ई०क्यू० और एस०क्यू० जो आंतरिक परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं, का विकास नही करता है। ई०क्यू० और एस०क्यू० की अनुपस्थिति शिक्षित वर्ग विशेषकर वैज्ञानिको और टेक्नोलॉजिस्ट्स में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है जब उनमें सहनशीलता, स्वीकारीयता, दूसरो की तरक्की का बखान जैसे गुणो का अभाव होता है। प्राणायाम और मेडिटेशन जैसी योगिक क्रियाओं की सहायता से इन को (ई०क्यू० और एस०क्यू०) को विकसित किया जा सकता है। आधुनिक शिक्षा दाएं भाग की चिंता किये बिना मस्तिष्क के बाएं भाग को विकसित करती है। यह बाएं और दाएं भाग  विकास में बहुत अधिक समानता उत्पन्न कर देती है। इसके कारण ई०क्यू० (दांया भाग) ठीक प्रकार से कार्य नहीं करता है। आधुनिक शिक्षा के कारण मनुष्य बहुत बुद्धिमान हैं लेकिन ई०क्यू० में कमजोर हैं। अस्टांग योग से जुड़े आसन, प्राणायाम और मेडिटेशन की सहायता से बाएं और दाएं भाग की असमानता को कम किया जा सकता है। आसन की सात अवस्थाएं और पूर्ण प्राणायाम ह्रदय की परिमाप (मस्तिष्क का दायां भाग) को विकसित करते हैं और सिर के अंदरूनी सामने का भाग (कूटस्था) को आंशिक रूप से विकसित करते है।

      “मानव मस्तिष्क और क्योशेंट (भाग)”  नामक चित्र मानव मस्तिष्क में क्योशेंट (भाग) की स्थिति को संक्षेप में दर्शाता है। चित्र मानव मस्तिष्क और विभिन्न क्योशेंट (भाग) जो दिमाग के सम्पूर्ण विकास के लिए उत्तरदायी हैं, को दर्शाता है। इंटेलिजेंस क्योशेंट (आई० क्यू० ) मस्तिष्क के  हिस्से में  विकसित होता है जो कि सूचनाओं को तुरंत एकत्र करने के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा अधिकतर आई० क्यू० का ही विकास करती है और ई०क्यू० और एस०क्यू० का विकास कम से कम हो पाता है। जब तक योग जैसे प्रयास नहीं किये जाते ई०क्यू अप्रयुक्त मस्तिष्क के बाएं भाग में विकसित होता है। आध्यात्मिक क्योशेंट (एस क्यू ) का तुरीया (मस्तिष्क का ऊपरी मध्य भाग ) पर मेडिटेशन जैसी योगिक क्रियाओं से विकास होता है। एकीकृत योग मस्तिष्क के दाएं भाग और तुरिया का पोषण करके  इन दोनों क्यूसेंट की सहायता करता है।

      उदाहरण स्वरूप उचित आसन और प्राणायाम ई० क्यू० वृद्धि में सहायक होंगे और मेडिटेशन  एस क्यू की वृद्धि में सहायक सिद्ध होगा। मेडिटेशन मुख्यत सिर के आंतरिक सामने के भाग (कूटस्था ) को विकसित करने  साथ मस्तिष्क के मध्य भाग (तुरिया) को भी विकसित करता है जो कि व्यक्ति के रचनात्मक और सहज ज्ञान के विकास के लिए भी उत्तरदायी है।  इस प्रकार जब एस क्यू विकसित होता है तब बुद्धिवान अज्ञात की खोज में मस्तिष्क की निश्चित गहराई तक गोता लगा सकता है।

 

 

अविभाज्य योगा आधुनिक शिक्षा में ई०क्यू० और एस०क्यू० की कमियों का सामना करने में सहायता करेगा और  प्रकार पूर्ण व्यक्तित्व के समग्र विकास को प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्तित्व किसी व्यक्ति विशेष की चेतना का परिणाम है। चेतना के ऊर्जा और स्पेस दो भाग होते हैं जिसके द्वारा चेतना के स्तर को उच्चतर स्तर तक उठाया जा सकता है। बदले में, पूर्ण व्यक्तित्व में ऊर्जा, स्पेस और चेतना होती हैं। विकसित चेतना से सांस्कृतिक पहलू के अतिरिक्त जीवंत व्यक्तित्व, प्रशासनिक, व्यावसायिक और शिक्षा क्षेत्र में व्यापक सफलता प्राप्त होती है। यह प्रतिदिन की जिंदगी में आत्मा की महत्ता भी पता लगाता है।

. वाह्य गतिविधि को सफलता के लिए आंतरिक आत्मा की कर्मभूमि को रखना चाहिए  

      आम आदमी अच्छी से अच्छी गतिविधि करने के बावजूद असफलता, निराशा, कष्ट और उदासी जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वाह्य गतिविधि कर्म की बहुर्मुखी प्रकृति से जुडी है जहां कर्म करते समय दी हुई इनपुट ऊर्जा नष्ट  जाती है। जब यह नष्ट हुई ऊर्जा आंतरिक कोर (जहां आत्मा रहती है) से मिलती है, सफलता मिलना निश्चित है। यद्यपि प्रतिदिन की जिंदगी में इस प्रकार की गतिविधि की उपस्थिति नही रहती है। इसलिए हमारी सामान्य गतिविधि हमारी ज्यादा सहायता नही करती। परिणामत विभिन्न क्षेत्रो में असीम प्रयास करने के बावजूद भी हम प्राय असफल होते हैं।

 


      जब हमारी गतिविधि  अंदर आत्मा की ओर निर्देशित  रहती है (जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है ) सफलता सुनिश्चित है। उदाहरण के लिए कृष्ण आत्मा को दर्शाता है और  चित्र में वाह्य गतिविधि शासन (मन ),घोड़ो (इन्द्रियां) और युद्ध क्षेत्र (वस्तुएं ) से जुडी है। जब वाह्य गतिविधि अर्थात वस्तुएं , चेतना (इन्द्रियां जैसे घोड़े ), दिमाग (मन जैसे शासन ) कृष्ण जैसी आत्मा से जुड़ जाती हैं , युद्ध में  सफलता  मिलना निश्चित है।

     भगवत गीता भी सफलता पाने के लिए इस प्रकार के अंतर्मुखी कार्य का समर्थन करती है। चित्र महाभारत के परिदृश्य को स्पष्ट करता है जहां यह बोला गया है कि कृष्ण और अर्जुन एक ही रथ पर बैठते हैं तब सफलता की सुनिश्चितता थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वाह्य गतिविधि जैसे वस्तुएं (युद्ध क्षेत्र ), ज्ञान (घोड़े) और दिमाग (रथ का शासन) आत्मा (कृष्ण) के प्रभाव में हैं। अर्जुन अहंकार (ईगो) को दर्शाता है अथवा घटना का स्वामी जो आत्मा अथवा कृष्ण भगवान के साथ घुल गया।

     “क्या सांसारिक गतिविधियां आत्मा के ज्ञान के साथ जुड़ सकती हैं ?” जैसे संदेह का उत्तर हाँ में होना चाहिए। जब कर्म बिना ज्ञान के क्षेत्र के किया जाता है तब वह दिन प्रतिदिन की जिंदगी में लाभप्रद नही हो सकते और आध्यात्मिक जीवन में साधना नही समझा जा सकता। लेकिन जब कर्म को योगा से जोड़ दिया जाता है तब वह कर्म योगा बन जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में किये गए कर्म समाज के लिए कल्याणकारी परिणाम उत्पन्न करेंगे और साथ में आध्यात्मिक साधना भी। यह समय आने पर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में सफलता प्रदान करेंगे। हालाँकि यदि हम दिमाग अथवा चेतना की हर स्तर पर बहुत स्पष्ट स्थिति नही रखते हैं तो कष्ट भी हो सकते हैं।  

. भ्रमित स्थिति में किये गए कार्य से असफलता और कष्ट भी मिल सकते हैं

      सामन्यता व्यक्तियों के दिमाग स्पष्ट रूप से व्यक्त हैं और ही आसानी से समझा जाता है। वे पारदर्शिता की सत्यता से कोसो दूर हैं। हम अपर्याप्त समझ और भेदभाव की स्थिति में महत्व, ज्ञान और समझ की एक हवा मान लेते हैं। तब हम क्रिया के क्षेत्र में प्रवेश करते है जिसको हम यह मान लेते हैं यह जिंदगी के कष्टों से बचा लेगी। लेकिन जैसा हम देख चुके है कि जब कर्म दिमाग की भ्रमित स्थिति में किया जाता है, कोई भी मनुष्य बचाया नही जा सका है। इतिहास गुजरने के साथ जिंदगी  समस्याएं ज्यों की त्यों रहती है। भ्रमित स्थिति में किया गया कोई भी कार्य दिन प्रतिदिन के परिदृश्य में हमें असफलता, निराशा, दुःख और उदासी में धकेल सकता है।जैसी समस्या कल थी, तह वैसी ही आज हैजैसा परिदृश्य सदैव बना रहेगा। दिमाग के भ्रमित परिदृश्य की स्थिति में केवल एक चीज है ,जो हम कर सकते है और वह है समस्या को और आगे की ओर कोई विशेष कदम उठाकर धकेलना। इस प्रकार हम उस बुराई को स्थगित कर रहे है, प्रकरण जैसा था उसका स्थगन मात्र कर रहे हैं कि वास्तव में समस्या का निदान। भ्रमित दिमाग इसको ऐसी क्रिया में ले आएगा जिसका हमारे  जीवन से कोई संबंध नही है। विश्लेषण दर्शाता है कि वे घटनाओं की पूरी जिम्मेदारी नही रहे हैं  भी जो टीम एक मास्टर की तरह काम नही कर रहे हैं, भ्रमित हो सकते हैं और जीवन में कष्टों, निराशा और उदासी की और अग्रसर हो सकते है। इससे बचने के लिए एक समर्पित और उत्साही कर्म की आवश्यकता है।

. आत्म निष्ठा और आत्म समर्पण आत्मा को पक्ष में लाता है

       किसी भी प्रकार की साधना विशेषकर प्राणायाम और मेडिटेशन समर्पण भाव से की जानी चाहिए। जब तक एक साधक योगिक क्रियाओं के लिए समर्पित नही होता है तब तक वह साधना अथवा योगिक क्रिया उत्साह पूर्वक नही कर सकता। इसके अतिरिक्त जहां अधिकार भावना ही केवल कारक है, वहां असंतुलित ईगो को समाप्त करके अथवा कम करके समर्पण दृष्टिकोण को विकसित किया जाना  है।

 

      ऐसा इसलिए है क्योंकि  सर्व प्रथम असंतुलित ईगो को संतुलित ईगो बनाना होगा और आगे चलकर इस संतुलित ईगो भी समाप्त करना होगा। संतुलित ईगो मेंमैं और मेरीभावना रहेगी लेकिन उसी समय मनुष्य साझा करने की समझ को विकसित करेगा। ई०क्यू० साझा करने की भावना को विकसित करेगा। इसलिए साधना का मार्ग अपनाने के लिए आत्म समर्पण आवश्यक है।

     आत्म समर्पण श्रवण क्षमता, ग्रहणशील पहलुओं,  हाथ में काम के लिए एकाग्रता विकसित  करने पर, राज गुण में रचनात्मक परिदृश्य के साथ अग्रसर होना स्पिरिट (आत्मा) के मार्ग की ओर ले जाता है। इसी प्रकार प्रतिबद्धता और समर्पण सहनशीलता, स्वीकार, प्रशंसा और सत गुण स्तर पर बिना शर्त का प्रेम के परिणाम उत्पन्न करेगा। इसके अतिरिक्त, विशेष गुण यथा संवेदना, दया, अनुकम्पा, दयालुता और क्षमा स्पिरिट की निकटता तक पहुंचने के लिए विकसित होंगी। समय पर भौतिक वाद के चलते समर्पण का भाव स्वत  होगा। आध्यात्मिकता के सर्वोच्च मूल्यों के लिए सांसारिक वस्तुओं यह एक समर्पण है। भगवत गीता में समर्पण अवधारणा को स्पष्ट रूप से वर्णित इन शब्दों में किया गया हैसर्वधर्मा परीताजिय ममेकम शरणम व्रजा (गीता १८/६६ )” इसका अर्थ हैहमें सभी लौकिक धर्मो , गुणो, जो कि बनावटी सांसारिक संतुष्टि का एहसास कराते हैं, का परित्याग कर देना चाहिए और सर्वोच्च धर्म (संसार में सब चीजों की सच्ची प्रकृति ) को अपनाना चाहिए।

.. सर्वोच्च और लौकिक धर्म

      प्रश्न उठता है -”सर्वोच्च और लौकिक धर्म है क्या ?” सर्वोधर्म वह है जो की प्रकृति के अनुकूल हो कि लौकिक धर्म (धार्मिक क्षेत्र में अनुष्ठान और ज्ञान प्रदान करना) को गीता में परित्याग करने  लिए कहा गया है। लौकिक धर्म में उन चीजों जिनको हम आँखों से हैं, को महत्व देते हैं। हर वस्तु को नष्ट किया जाना है इसीलिए आध्यात्मिक धर्म अन्य धर्मो का अतिक्रमण करता है। वास्तविक, सर्वोच्च ज्ञान क्षेत्र में अतिक्रमण का मुख्य उद्देश्य क्रमवद्ध तरीके से प्राप्त किया जा सकता है कि अव्यस्थित तरीके से।  इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्राणायाम और मेडिटेशन क्षेत्र में जो भी कुछ हम करें उसका हमें उद्देश्य और  कार्यवाही का अर्थ मालुम होना चाहिए। इस संबंध में आत्मा का विभिन्न स्तर पर ज्ञान होना बिलकुल सहायक सिद्ध होगा। यही कारण है कि अधिकतर मनुष्य यह यकीन करते हैं किसॉऊल (आत्मा)” आध्यात्मिक विकास का विषय है। निःसंदेह यह सत्य है लेकिन लौकिक धर्म को धर्म को छोड़ने से पहले हमें विकसित आत्मा की उपयोगिता, गुण, स्थिति का सही चित्रण हमारे सामने होना चाहिए। इसको प्राप्त करने के लिए विकसित आत्मा की सहायता से हमें अपने प्रयासो में सफलता प्राप्त करनी है। इस प्रकार हर चीज जो सफल होती है, को अतिक्रमण करना है ताकि सॉऊल और आत्मा सर्वोत्कृष्ट है।

      आत्मा पदार्थ और भगवान के मध्य संयोजक का काम करती है। जब तक हम इन तीनो (स्पिरिट या भगवान, आत्मा और पदार्थ) के गुणो को हम समझ नही लेते हैं तब तक अँधेरे में ही कार्य करते रहेंगे। इसका विश्लेषण एक उदाहरण के माध्यम से करते हैं। स्पिरिट सब मूल्यों जो इस दुनिया में हम पाते हैं, का समुन्द्र है। जब भगवान के साथ संयोजिकता स्थापित हो जाती है तब सांसारिक चीजों की ईच्छा समाप्त हो जाती है। इसलिए जब हम  सांसारिक चीजों की ईच्छा छोड़ देते हैं तब हम उच्च मूल्यों के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहां निम्न मूल्यों की चीजें नई वास्तविकता में परिवर्तित और घुल मिल जाती हैं। यद्यपि निम्न मूल्य की वस्तुओं को त्यागने का परिदृश्य बहुत कठिन है। लेकिन वह प्राप्त किया जा सकता है यदि आत्मा के विभिन्न स्तरों जो भगवान और पदार्थो के मध्य है, को हम जान लेते हैं। पदार्थो के मूल्यों को कम करने अथवा समाप्त करने का सबसे सरल तरीका जीवात्मा की स्वतंत्रता और आत्मा का विलय है। परमात्मा, आत्मा और जीवात्मा के मध्य कनक्टिविटी को मानव निर्मित सृष्टि में जाना जा सकता है। प्रकृति सृष्टि की स्वामी है इसलिए आत्मा को समझने से पहले सम्पूर्ण प्रकृति को महसूस करना होगा।

. सृष्टि भगवान् को खोजती है  

       “सृष्टि वास्तविकता को पहचानने से रोकती है लेकिन अब्सोल्युट को खोजने में सहायता भी करती हैनामक चित्र, सृष्टि जिसने प्रत्येक मानव आत्मा में अब्सोल्युट को खोजा, का संक्षेप में वर्णन करती है। अभूतपूर्व संसार सदैव परिवर्तित हो रहा है। परिवर्तन रहित तक पहुंचना हमारा लख्य है। हमवहहोना चाहते हैंउस परिवर्तन रहित वास्तविकताअब्सोल्युटका अनुभव करने के लिए। उस वास्तविकता का अनुभव करने  लिए हमें क्या रोक रहा है ? यही सृष्टि का सार है। रचनात्मक दिमाग सदैव उत्पन्न कर रहा है और अपने ही निर्माण में मिलता जा रहा है। लेकिन हमें उस सृष्टि को याद रखना चाहिए जो ईश्वर को खोजता है।

 

    ब्रह्माण्ड में पृथ्वी और अज्ञात डोमेन के बीच में सौर मंडल, आकाश गंगा और तारा मंडल है। यह सर्वोच्च वास्तविकता अथवा भगवान् अथवा सत्य के अस्तित्व को उजागर करती है।अभूतपूर्व संसार सदैव परिवर्तित हो रहा है। परिवर्तनपरिदृश्य सृष्टि का प्रबंधन प्रकृति द्वारा होने तक घटित होता रहता है। इसका मतलब हुआ कि मनुष्य को प्रकृतिनियम जहां करणीय संबंध, समय और स्पेस काम  कर रहे हैं, के आगे तक विकसित होना है।  जब तक प्रकृतिनियमसीमा से आगे नही निकल जाते तब तक उस अज्ञात डोमेन तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह इंगित करता है कि भगवान की खोज के लिए आध्यात्मिक साधना में प्रयास किये जाने चाहिए। परिवर्तनरहित तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य है। हम उसको प्राप्त करना चाहते हैं और उसको अनुभव करना चाहते हैं। उस डोमेन में हम उस अब्सोल्युट जो परिवर्तनरहित और वास्तविक है, को देख पाएंगे।    

      यह सृष्टि ही है जिसने प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में अब्सोल्युट को खोजा। जब दिमाग का बनावटी डोमेन से आगे विस्तार होता है और आध्यात्मिक डोमेन (वृति से मुक्त) के गुणो को प्राप्त करता है, प्रकृति सीजीज कालक्रमवद्ध परिदृश्य का विश्लेषण किया जा सकता है। प्रकृति के कार्यात्मक पहलु अग्ना चक्र पर कार्य करते हैं और पीनियल, पिट्यूटरी, हाइपोथेलस नामक तीन ग्रंथियों का संयोजन है।

      जब हमारी ऊर्जा और दिमाग अग्नि चक्र पर तरंग की तरह काम करते हैं तब प्रकृति का कार्यात्मक पहलू मनुष्य के अच्छे विचारो को प्रकट करने के लिए पूर्ण जोरो पर होता है। अग्नि से परे जब अग्ना  दोनो पत्ते (बाएं और दाएं गोलार्द्ध के पत्ते) विकसित हो जाते हैं तब सांसारिक मामलो (जैसे माया) के लिए प्रकृति के क्रियात्मक पहलु रुक जाते हैं। प्रकृति के आध्यात्मिक पहलु साधना के लिए अग्रिम विकास तक, जब तक कि वास्तविक के दर्शन नही हो जाते, सहायक के रूप में बने रहते हैं। इस प्रकार लौकिक डोमेन में उत्पत्ति वास्तविकता को उजागर कर देती है।

     साधना में यह बहुमूल्य प्रश्न है कीहमको उस वास्तविक का अनुभव कराने से कौन रोक रहे ?” बनावटी डोमेन की उत्त्पति में मौजूद कारक ही इसका उत्तर हो सकते हैं। बनावटी बुद्धि रचनात्मक दिमाग है  प्रकृति के कानून के अधीन काम करता है। रचनात्मक दिमाग सदैव रचना करता रहता है और  अपनी ही रचना में घुल मिल जाता है। यह रचना कैसे घुल  जाती है और कैसे अलग हो जाती है ? तत्व बोध का ज्ञान द्वारा रचना में शामिल तत्वों का विश्लेषण किया सकता है और अलग जा सकता है; ताकि आत्मा और परमात्मा के (ईश्वर) रियलाइजेशन को प्राप्त किया जा सकता है। भगवत गीता में लार्ड कृष्ण अर्जुन को बतलाते हैं कि हे अर्जुन ! तुम दोनों तत्व पर, जिससे योगी सीधे मेरे पास आते है , अपनी पकड़ रक्खो। इन दोनों तत्व की समझसत्यअसत्य” ,”क्षरअक्षर ” ,”परा  –अपरा प्रकृति ”, “नित्यअनित्यअवधारणा की मदद से प्राप्त की जा सकती है। उक्त अवधारणाओं पर पकड़ प्राणायाम और मेडिटेशन की सहायता से की सकती है।   

. भावना और गुणो से अलग करके आत्मा का अनुभव किया जाना   

      आत्मा प्रत्येक के ह्रदय में वास करती है।पिंगला पथ पर  स्थित और इड़ा पथ पर स्थित दिमाग (मनसहायता से आत्मा को उठाकर इसको अनुभव किया जाना है। जीवात्मा ने प्रकृति की अंतर्निहित संपत्ति के कारण इन्द्रियों, दिमाग, बुद्धि को अपनी ओर आकर्षित किया है।  इसके कारण जीवात्मा इन्द्रियों और दिमाग के कार्यो पर निर्भर रहती है। इन्द्रियों में सत्व, गुण लक्षण (धनात्मक विद्युत् आवेश  समानता) होने के कारण ये दिमाग को निचले स्तर अथवा मनुष्य का चक्र  पर रखती हैं। इसके कारण दिमाग तमोगुण के लक्षणों (शून्य विद्युत् आवेश से समानता) को प्राप्त कर लेता है। यह इंगित करता है कि दिमाग को चक्र के उच्चतर स्तर पर क्रियाशील बनाकर जीवात्मा को अलग किया जाना है।

 

 

 

     अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मा का हर प्रकार के विषयों (मानसिक और भौतिक) से अलगाव अनिवार्य है। लक्ष्य प्राप्त होने पर आत्मा पाएगी कि  समय पर इसका  विकास हो गया है।  आत्मा आनंदमय वातावरण उपलब्ध कराती है जिसको अन्य कोई उपलब्ध उपलब्ध नही करा सकता।  इंगित करता है कि जब तक हमें प्रश्न रहने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता पड़ती है; हम स्थाई और विकसित नही हैं। उस शर्त पर (दूसरो की प्रशंसा पर निर्भर) हम सामान्यत जीवंत समाज और  विशेषकर ऊर्जीकृत राष्ट्र को प्राप करने के लिए अधिक योगदान नही कर सकते।  यह लोगों को उत्साह के साथ प्रतिबद्ध, समर्पित, और काम करने के लिए आवश्यक विकसित (किसी भी सीमा तक) आत्मा की महत्ता को दर्शाता है। 

      योगा चूड़ामणि उपनिषद में भौतिक और मानसिक संसार द्वारा योगिक अभ्यास से  साउल (बिंदु) का अलगाव किया गया है। उसी बिंदु को बिंदु विसागरा (सिर के पीछे ऊपर तीसरी वेंट्रिकल) तक उठाया गया है। मूल रूप से मानव जन्म के समय  स्थापित यह (बिंदु विसागरा) आत्मा का स्थान है। योग चूड़ामणि उपनिषद के मन्त्र ६३ के अनुसार जब राजस (आत्मा की हृदय पर उपस्थिति) वायु बल से हटाया जाता है, यह बिंदु के साथ संयोजन बना लेता है और तब शरीर आने वाले पूरे समय के लिए दिव्यता (ईश्वरीयता) को प्राप्त हो जाता है।

      चित्रप्राणायाम द्वारा चन्द्रमा बिंदु परसंक्षेप में आत्मा का बिंदु विसागरा तक उत्थान बतलाता है। प्राणायाम प्रक्रिया में मनुष्य को चन्द्रमा की चमकीली चकती पर ध्यान (मेडिटेशन) करना चाहिए। जो कि अमृत के समुन्द्र के समान है और सफेद हिस्सा गाय के दूध के समान। इस उत्थान को चंद्र भेदा जैसे कुछ विशेष प्राणायामों को ग्रहण करके सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। चंद्र भेदा प्राणायाम सांस अंदर लेने, उसे रोकने और फिर निकालने के बाद किया जाना चाहिए।

     जब परम पुरुष (परमात्मा) पाता है कि यह (बिंदु  विसागरा अथवा तीसरी वेंट्रिकल पर आत्मा ) स्वतंत्र है और इसे अपने को पूर्ण करने के लिए किसी की आवश्यकता नही है, स्वतंत्रता की प्रक्रिया स्थापित हो जाती है। ऐसा इसलिए  क्योंकि इस प्रकार की प्रकृति को स्वतंत्रता (कैवल्य) अतिरिक्त किसी चीज की आवश्यकता नही है और वह प्राप्त हो जाती है। कैवल्य की प्राप्ति तीसरी वेंट्रिकल पर  चित्ताकश में होती है।  यह अकेला कार्य है जिसको प्रकृति और प्रकृति के लिए एक स्वतंत्र इच्छा के रूप में चित्ताकश (शुद्ध चित में घुला हुआ दिमाग) द्वारा किया जाता है। चित्ताकश अपने साथ किसी बाध्यकारी लगाव को नही लाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बाध्यकारी लगाव को  स्वतंत्र शाश्वत आत्मा के लिए खत्म अथवा कम कर कर दिया जाता है। स्वतंत्रता को मुख्यत प्रकृतिनियमो के विरूद्ध  लाया जाता है जिसको टाइम, स्पेस, कैजुएशन  नाम से जाना जाता है।

     कैवल्य तक पहुँचने  लिए जीवात्मा को प्रकृति की पकड़ से छुटकारा पाना होता है। जीवात्मा द्वारा प्रकृति नियमो के विरुद्ध प्राप्त स्वतंत्रता हमारे लिए दिन प्रतिदिन के विकास में बहुत मित्रता पूर्ण है बशर्ते हम जीवात्मा के उत्थान के लिए प्रक्रिया समझते हों। इसी तरह, जब यह स्थिरता को प्राप्त हो जाती है, भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में पूर्ण सफलता प्रदान करती है। विश्लेषण दर्शाता है कि आत्मा के क्रियात्मक पहलुओं को समझने से जीवन  हर क्षेत्र में सफलता आसानी से प्राप्त की जा सकती है और आम आदमी के लिए गतिशील और जीवंत दुनिया को प्राप्त करने का यह (आत्मा) एक सरल विषय हो सकता है।                                                                            

 

  

इंजी० नैपाल सिंह का संक्षिप्त जीवन परिचय

( उन्ही के शब्दों में )

 

 

मेरा जन्म १४ जुलाई १९४५ (वास्तविक तिथि अज्ञात) ग्राम भुम्मा, जनपद मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। माता पिता अशिक्षित थे। अशिक्षित होने के बावजूद पिता जी को रामायण और महाभारत का बहूत ज्ञान था और प्राय उनके चरित्रों के बारे में सुनाया करते थे। पिता जी और पिता जी के छोटे भाई दोनों को मैं चाचा कहकर ही पुकारता था। पिता जी जब भी घर में होते थे, माता जी उन्ही के पास बैठी रहती थी और हर सम्भव उनकी सेवा, सहायता करती रहती थी बचपन में एक भजनी (स्व० श्री शोभाराम) हर वर्ष हमारे घर रूककर कईकई दिन तक रात को भजन किया करते थे। उन संगीत मय भजनो में महाभारत अथवा अन्य महापुरुषों के किस्से होते थे जिसको गावों के भद्रजन चौपाल पर बैठकर सुनते थे। यह तथ्य कि वे आर्य समाज के प्रबल प्रचारक थे, मुझे कुछ वर्ष पूर्व तब  पता चला जब मेरी उनसे मेरठ में, जहां वे स्थाई रूप से रहने लगे थे, मुलाकात हुई।

          पांच बड़े  भाइयों में से हाई स्कूल भी एक ही भाई कर सका था दो भाइयों ने सेना में सेवा की , जिनमे से एक भाई लगभग वर्ष तक आजाद हिन्द फौज में विदेशो में रहे और उन्हें बाद में स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा भी प्राप्त हुआ। लगभग वर्ष की आयु में मैनें गांव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ना प्रारम्भ किया। प्रारम्भिक वर्ष में पाठशाला में पढाई से बचने के लिए जंगलो में भाग जाया करता था जहां से स्कूल के बच्चे मुझे पकड़कर स्कूल ले जाते थे। पहले वर्ष के बाद से ही पढाई में, विशेषकर गणित विषय में रुचि लगने लगी और प्रत्येक कक्षा में प्रथम आने लगा। पांचवी, आठवीं कक्षा में जनपद में प्रथम स्थान प्राप्त पाया। आठवीं कक्षा जानसठ जूनियर हाई स्कूल से की जहां मेरे चचेरे भाई श्री नवाब सिंह अध्यापक थे। श्री नवाब सिंह का भी मेरी शिक्षा में बहुत योगदान रहा। १०वी कक्षा राजकीय हाई स्कूल मुज़फ्फरनगर से प्रथम श्रेणी में, १२ वी कक्षा सनातन धर्म इंटर कॉलेज, मुज़फ्फरनगर से प्रथम श्रेणी में, बी०एससी० सनातन धर्म  डिग्री कॉलेज मुज़फ्फरनगर से प्रथम श्रेणी में पास की। १९६९ में मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज इलाहाबाद (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से प्रथम श्रेणी में  बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग की। पढाई खर्च के लिए पिता जी अपने छोटे भाई के माध्यम से पास के कस्बे के साहूकार से कर्ज लेकर मुझे भेजते थे। परिवार के अधिकतर सदस्यों में धूम्रपान, नशे की लिप्तता के बावजूद मैंने आज तक इन व्यसनों से अपने आप को दूर रक्खा। छठी कक्षा से इंजीनियरिंग तक अर्थात १३ वर्ष तक छात्रवृति प्राप्त की। १९६९ में पिता जी को बीमार अवस्था में छोड़कर मुम्बई नौकरी की तैलाश  में  जाना पड़ा। बम्बई जाते समय पिता जी ने अपनी कुल जमा पूंजी  १८० रूपए देकर बिदा  किया। लगभग माह बाद पिताजी की मृत्यु होने पर भी उनके अंतिम दर्शन के लिए गांव में इसलिए नही सका था क्योंकि किराए के लिए पैसे नही थे। बी० एससी० तक जब गर्मियों की छुट्टी में गांव जाता था तब किसान के सब कार्य यथा हल चलाना आदि कार्य किया करता था। यह सब इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि जिस अत्यंत गरीबी पर मेरे जीवन की आधारशिला रक्खी है उस  गरीबी को बखान करने में आनंद आता है। 

     मेरे दो पुत्र हैं। बड़ा पुत्र १९९६ में कम्प्यूटर इंजीनियरिंग करने के बाद १९९८ से अमेरिका, ब्रिटैन, कनाडा में सेवारत रहा है। २००१ में मुझे सपरिवार अमेरिका, २००५ में लंदन और २००७ से कनाडा में समय समय पर रहने का सुअवसर मिला। छोटा पुत्र एम्०डी०एस० प्रोस्थोडोंटिक्स करने के बाद एक डेंटल कॉलेज में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष है और पत्नि के साथ डेंटल क्लीनिक का भी संचालन करता है।  छोटा पुत्र सऊदी अरब के एक विश्वविद्यालय में भी  वर्ष तक तक प्रोफेसर रह चूका है।

      वर्ष १९७० में सिंचाई विभाग उ०प्र० में सहायक अभियंता पद से सेवा प्रारम्भ की। वर्ष २००५ में इसी विभाग से मेरठ में कार्यरत रहते हुए सेवानिवृत हुआ। नेट वर्किंग / कंप्यूटर में रूचि के कारण सेवानिवृति के बाद अपने आप को सामाजिक कार्य में व्यस्त रखता हूँ। इसी कड़ी में अपने मित्र और इंजीनियरिंग के सहपाठी श्री ए०एन० पांडेय जी द्वारा रचित  इस आध्यात्मिक पुस्तक का अनुवाद यहां कनाडा में रहते हुए किया गया है। इससे पूर्व उन्ही की एक अन्य पुस्तककॉमन प्लेटफार्म फॉर साइंस एंड स्पिरिचुअलिटीका अनुवाद भी मेरे द्वारा कनाडा में रहते हुए किया जा चूका है। मेरठ में स्थानीय आर्य समाज के कार्यो में भी रूचि  रखता हूँ। मित्रो से सम्पर्क, वार्ता में भी अपने तरह का अलग आनंद आता है।

                                 Email : naipal.singh@gmail.com

                      Whatsapp while in Canada: 6478012014

                      Whatsapp while in India:     7017424316 or 9358412966

 

 

प्रोफ़े० ए०एन० पांडेय (लेखक) का संक्षिप्त परिचय

 

     प्रोफ़े० ए०एन० पांडेय ने वर्ष २००६ तक भाभा रिसर्च सेंटर (डी ) में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी  के रूप में कार्य किया। उन्होंने परियोजना प्रबंधन में व्यापक अनुभव और विशेषज्ञता प्राप्त की।

 

     यथासम्भव उत्कृष्ट प्रदर्शन प्राप्ति के लिए, अंतर्व्यक्तिगत संबंध रखने के लिए, पूर्ण गुणवत्ता युक्त प्रबंधन प्राप्ति के लिए, स्व प्रेरणा प्राप्ति की ईच्छा ने श्री पांडेय जी को आध्यात्मिक खोज की ओर प्रेरित किया। भारत के प्रसिद्ध आध्यात्मिक संस्थानों के माध्यम से प्राचीन भारतीय ज्ञान, अनुभव और उसकी प्राप्ति में भी उनकी उतनी ही रूचि थी। उन्होंने बंगलौर स्थित विश्व स्तरीय विश्वविद्यालयस्वामी विवेकानंद अनुसंधान संस्थानके सहयोग से एक आध्यात्मिकमॉडल (वेदान्तिक) प्रस्तुत किया। वह बिहार स्कूल ऑफ़ योग, सिम्प्लिफाइड कुण्डलिनी योगा, विपासना मेडिटेशन, योगदा सतसंग सोसाइटी और ब्रह्म कुमारी संस्थानों से भी जुड़े हैं।

 

       वर्तमान में वह हैदराबाद स्थितस्प्रिचुअल अवेयर प्रोग्राम” ‘सैपनामक अनुसंधान संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं औरपर्सनलिटी डवलपमेंट फॉर स्टूडेंट”, “पर्सनलिटी डवलपमेंट फॉर प्रोफेशनलऔर पर्सनलिटी डवलपमेंट फॉर मैनेजर्स जैसे अनेक पैकेजेज डेवेलपमेंट की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। उन्होंने आध्यात्म (योगा और वेदांता) की पृष्टभूमि में स्ट्रेस मैनेजमैंट, ऐंगर  मैनेजमैंट, रजिस्टिविटी मैनेजमैंट, लीडरशिप, सैल्फ मोटिवेशन, टाइम एंड माईंड मैनेजमैंट एंड कोमिनिकेशन स्किल पॅकेजिज  का भी डेवेलपमेंट किया।

 

     उन्होंने आध्यात्म के प्रकरण को लेकर ही अनेक सरल और प्रभावी तकनीकी की कल्पना की, यथा साइंस ऑफ़ ब्रीदिंग, डेवेलपमेंट ऑफ़ सबटिल इनर परसनलिटी, रिलैक्सेशन इन एक्शन एंड मेडिटेशन इन एक्शन  अपराध, आधुनिक शिक्षा, वैश्विक अर्थ व्यवस्था, निर्धनता, चिकित्सा, न्याय पालिका और राजनैतिक अस्थिरता से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधन की दिशा में भी सैप संस्था निरंतर प्रयासरत है।

 

      श्री पांडेय वैज्ञानिको और धर्म गुरुओं के लिए एक ऐसे मंच की भी कल्पना कर रहे हैं जहां वे विज्ञान और आध्यात्मिक जैसे विषयो पर कोनसीएसनस (चेतना) को परिभाषित करने के लिए एक दूसरे द्वारा किये गए अनुसंधानों की चर्चा आपस में बैठकर कर सकें। यह मंच दोनों (वैज्ञानिक और आध्यात्मिक गुरु) के लिए महत्वपूर्ण है जो कि क्रिएशन की सच्चाई को सरल तरीके से उजागर करने के लिए कार्य कर रहे हैं।

 

     किलर डिजीज, मैनेजमैंट, स्प्रिचुअलिटी, हैल्थ मैनेजमेंट एंड सोशल रिफॉर्म्स क्षेत्रो में लिखी पुस्तकों के भी वे लेखक हैं। उन्होंने वेद और उपनिषदों की अनेक योगिक अवधारणाओं को भी प्रस्तुत किया और आम आदमी की समझ के लिए उसे आसान बनाया। उनकी पुस्तकें स्वामी विवेकानंद योगा प्रकाशन, बंगलौर, भारत और अमेजॉन डॉट कॉम पर उपलब्ध हैं।

 

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2 thoughts on “यूटिलिटी ऑफ़ सॉऊल फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ वाइब्रेंट सोसाइटी( एन इन्नोवेटिव योगिक अप्रोच )

  1. Dear AN Pande
    I was keeping your mail for last few months and had a quick look today.

    I was your neighbor in Kanchenjanga AN. I retired in 2003 and am now living in Kendriya Vihar (KV), Kharghar, Navi Mumbai. My daughters have moved to NJ and FL.

    I am fine with my spouse. KV has many retirees from DAE so we are in good old company. In Community Centre we are running a library and meet for one hour in the evening. It has about 3000 books in various subjects all donated by oldies like us. Reading habits are on the wane and religious books are best donated. Surprisingly Bhagvat Geeta is maximum donated and mostly unread.

    Mind and Soul are essential concepts to define God. Both God and Soul are concepts to explain few things.

    However Mind is physical being that runs a parallel world (third) that is not in nature. Other two are (1) Material/Physical world that all we see around and have clear scientific laws (2) Biological World that has clear laws of survival and evolution.

    Mental World does not exist in nature and is created by Mind. Soul and God are part of it. All GOOD and NOT SO GOOD around is creation and aberration of mind.

    I do not propose to quote any religious book as they are as confusing since rely mainly on myths. They are last resort of both very intelligent and ignorant individuals.

    More after hearing from you.

    1. Respected Shri Pant Ji,
      Thank you very much for your mail and tracking me with your kind interest. I am very happy that you are having very scientific and sound knowledge of spirituality and your explanation is really wonderful. Normally after retirement, people become tired to explore from “what we are” to “who we are”. You are evolving in the right direction and I am unfortunate to remain unassociated with you so far. Your kindness has made me to become nearer to each other. I am very thankful to you for sending me the mail.
      I was working in Kalpakkam and retired from there in January 2006. Being BARC as headquarter I frequently used to visit but perhaps could not get your closeness earlier. However I am very happy to know your quest in the field of spirituality.
      You are very correct that mind is essential to understand Soul and God. Without purification and expansion of mind, we cannot change our Artificial Intelligence (AI) into Cosmic Intelligence (CI); which (CI) is essential factor to realize our soul (the mirror view of God or Parmatma). Both God and Soul are concepts to explain few things; especially to explore the highest form of energy and intuitive approach (Pragya), required for discovery of unknown, of an individual.
      The mind has got two aspects namely i) Physical and material and ii) Non physical and non material. The physical mind is attached with the life pattern of an individual when the same is associated with senses (Indriyas). The non physical mind work like a Tattva which cannot be measured or seen but can be perceived or experienced. The nature transforms the non physical mind to physical mind which can be termed as Maya (non existence); under which we are playing like drama.
      The reduction of consciousness (Soul) plays an important role for materialistic world in the form of “Jivatma” mainly governed by five basic elements like i) Earth ii) Water iii) Fire iv) Air and v) Ether or Akasha. This is also known as manifestation in yoga.
      The exploration of biological, cellular mechanism, brain and consciousness is process of quantum possibility; which is known as “Evolution” in yoga. While obtaining step by step quantum possibility like atoms to molecules, from molecules to cells, from cells to brain have been explored by science but science is still having paradigm from brain to consciousness. However, Indian yogi has experienced complete phenomena of quantum exploration upto consciousness and the same is termed as evolution.
      The biology, emotional, psychology comes under the arena of physical mind but neurology, sociology and quant logy comes under the domain of non physical mind (work like Tattva). It is correct concept that evolution process gets kick from biological world onwards. Physical mind is responsible for GOOD or NOT GOOD undoubtedly. This is because when energy and space are below the certain level say below or at Manipur chakra, the like and dislike, good and bad, Raga and Dwesha all exist.
      Mental world exist in nature as Trafficking like Energy exist in nature as Networking. Because of these two (Networking and Trafficking); the planets, sun, milky galaxy and stars exist. The arrangement of these two sustains the phenomena of universe. However, the controlling factor is the different levels of consciousness (Chetna).
      Sir, you are right that interpretation of different religious books is very confusing because of terminology and explanatory notes which are vague. However, the fundamental and basic concepts given in Veda, Upanishad, Bhagwad Gita and even in Hanuman Chalisa are very clear. The concepts given in these get endorsed by modern science like particle physics and quantum physics.
      SAP (www.yogicconcepts.in) at Hyderabad in continuation with SVYASA (www.svyasa.edu.in), Bangalore are trying to establish the common platform for both scientist as well as spiritual master to have a common dialogue to understand achievement of each; for which swamy Vivekananda has delivered the talk in London in 1886 or so. In this connection, you may get some of the articles from my website related to science and yoga especially the last article published on the eve of international yoga day. In Veda, Upanishad and Bhagwad Gita have given complete creation and function of the world and individual a long ago which science is endorsing through quantum and particle physics.
      I request you to gather likeminded friends, especially physicist who can contribute or comment positively with reasoning’s on the articles which I have already published or being published (in due course) so that Indian concepts mentioned in above documents will establish the lead along with scientific concepts for further discovery for the utility of human kind.
      The further dialogue continues. Kindly note the change of email. Perhaps Shri Porwal Ji of BARC is also staying in KV. He is in touch with me.
      With kind personal regards,
      A N Pandey

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